अहमदाबाद। चार मूल सूत्रों में जिसका श्रेष्ठ स्थान है ऐसा उत्तराध्ययन सूत्र वैराग्य से भूरपूर है। जगत के निष्पक्ष लोग इसका अभ्यास करे तो वे सब यह कहने को मजबूर हो जाये कि उत्तराध्ययन सूत्र वैराग्य की खास है। ऐसे महान सूत्र के प्रथम अध्ययन की यह गाथा- अप्पा चेव दमेवलो अप्पा हु खलु दछमो। अप्पा दन्तो सुही होदू अस्सिं लोए पर-थ य।।
अर्थात् आत्मा का ही दमन करने जैसा है, आत्मा का दमन करना कठिन भी है किंतु दमन की हुई आत्मा ही इहलोक और परलोक में सुख की प्राप्ति करवाता है।
वैराग्य प्रेमी, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयश सूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित भाविकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि पू. आत्मारामजी म.सा. कहते थे कि जो आत्मा उत्तराध्ययन सूत्र का बराबर अभ्यास करे और शक्तिशाली हो तो अवश्य संसार को छोड़कर दीक्षित ही बन जाये। यदि आत्मा इतनी शक्तिशाली ना हो तो भी कम से कम मन से वैरागी तो बन ही जायेगी। पूज्यश्री फरमाते हैं कि संसार के समस्त संबंध अनेक बार जोड़े और छोड़े परंतु आत्मा यह नहीं समझती की संबंध नश्वर है और आत्मा अमर है। आत्मा को राग-द्वेष से बचकर चले तो सिर्फ ड्रीविंग है। आत्मा को संयम में रखना कठिन है क्योंकि आत्मा परमात्मा के पक्ष से भी अधिक कर्म के, मोह के पक्ष में रहता है। संसार के चक्कर में इतने फंस गये है कि सामायिक की 48 मिनिट भी ऐसा नहीं सोच सकते कि मैं आत्मा हूं। पूज्य गुरुदेव ने कहा कि आत्मा की निरंतर स्मृति होनी चाहिए। संसार की इस जंजाल में आत्मा को भूल जाते हंै। आत्मा को यदि निरंतर याद करना है तो उत्तराध्ययन सूत्र के मूल में जाना होगा। पूज्य गुरूदेव कहते है कि काश सब में ऐसी दृष्टि आ जायें कि स्वयं भी आत्मा में रहे और सबको आत्मा के रुप में देखें। संसार में रहे हुए तमाम लोग अपने माता-पिता-पुत्र-पुत्री-पति-पत्नी-भाई बहन आदि संबंधों को उसी दृष्टि से देखते है तो उत्तराध्ययन सूत्र कहता है कि एक बार तो आत्मा को आत्मा की तरह देखो, सभी को आत्मा के रुप में देखें तो सारी समस्यायें यूं ही हल हो जाएगी।
महावैरागी चक्रवर्ती, छ: खंड के अधिपति भरत महाराजा एक बार अपनी सजावट कक्ष में बैैठे थे। दास उन्हें तैयार कर रहे थे तब ही एक छोटा सी घटना घटी। भरत महाराजा अपनी आठों ऊंगालियों में अलग-अलग रत्नों की अंगूठी पहनते थे और अचानक से अक ऊंगली में से अंगूठी निकल गई। अंगूठी के निकल जाने से भरत महाराजा के भीतर एक मानसिक आंदोलन प्रारंभ हुआ। वे ोचेने लगे कि इन आभषूणों से मेरी शोभा है या मुझसे आभूषणों की शोभा है? यदि मैं अपनी चमडी को निकाल दूं तो मेरा कैसा स्वरूप होगा? अशुचि भावना के अपूर्व भावों में खो जाओ तो यह ज्ञात हो जायेगा यह शरीर आखिर अशुचि पदार्थों से ही मरा है। इस बाह्य सौंदर्य के पीछे पागल बने हुए प्रत्येक व्यक्ति का शरीर तो मांस और रक्त के पीछे पागल बने हुए प्रत्येक से ही भरा पड़ा है। बस ऐसा सोचते सोचते भरत महाराजा को लगा कि क्या मैं इतना डरावना हूं और क्या इन सुवर्ण-रजत और रत्न के आभूषणों से मेरी शोभा है? ऐसी भव्य एकत्व भावना में डूब गये कि रंग-राग का स्थान आरीसा भवन में वैराग्य प्रगट हो गया। केवल वैराग्य भाव ही नहीं किंतु महामूल्यावन केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई।
वैसे तो ऐसा ही सिद्धांत है कि संयम के बिना केवलज्ञान प्राप्त नहीं होती लेकिन अंतर के संयमी-वैरागी के थे कि भरत महाराजा को संसारी वेश में केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। अत: शास्त्रकार भगवंतों ने भी इसकी नोंध की है। केवलान के लिए ध्यान अत्यंत अनिवार्य होता है। भरत महाराजा की क्या तीव्र वैराग्य की भावना कि बाह्रय वेश संसारी का, बैठे थे आरीसा भवन में लेकिन भावना इतनी उच्च कक्षा कि की उन्हें सीधा केवलज्ञान ही प्राप्त ही हो गया। बस सब भी ध्यान के चार प्रकारों को समझकर धर्म ध्यान में लगे जाये और जल्द से जल्द केवलज्ञान को प्राप्त करें।
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