मॉस्को में रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह और चीनी रक्षा मंत्री वेई फेंग की मुलाकात के बाद जब दोनों देशों के विदेश मंत्रियों के मिलने की योजना सामने आई, तब ऐसा लगा था कि बीजिंग शायद जमीनी हकीकत को तस्लीम करना चाहता है, और अब उच्च स्तरीय बातचीत का रास्ता खुलने से स्थितियां बेहतरी की ओर बढ़ेंगी। हालांकि, तब भी त्वरित समाधान की उम्मीद किसी ने नहीं बांधी थी। लेकिन विदेश मंत्रियों की बैठक से ठीक पहले उसकी फौज ने पूर्वी लद्दाख में जिस तरह से एक बार फिर उकसाने वाली कार्रवाई की है, उससे तो यह साफ हो गया है कि बीजिंग की दिलचस्पी विवाद सुलझाने में नहीं, बल्कि भारत को उलझाए रखने में है। इसीलिए उसने प्रॉपगैंडा का सहारा लेते हुए इस बार भारत पर ही ‘वॉर्निंग शॉट्स’ दागने का आरोप लगाया है। लेकिन उसकी पैंतरेबाजी को अब दुनिया समझ चुकी है, और उसकी विश्वसनीयता का संकट तो इतना गहरा चुका है कि कम से कम भारत से जुड़े मामलों में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भी वह अलग-थलग पड़ने लगा है।
कई दशकों से भारत समग्र सीमा विवाद को सुलझाने के लिए बातचीत शुरू करने की अपील करता रहा है, लेकिन भयादोहन की अपनी पारंपरिक कूटनीति के तहत बीजिंग इसे हल नहीं करना चाहता। पूर्वी लद्दाख की कुचेष्टाएं उसकी मंशा बता रही हैं। वह जानता है कि एक बार सीमा-निर्धारण हो गया, तो भारत अब इतना समर्थ हो चुका है कि उसकी सरहदों पर वह कोई मनमानी नहीं कर पाएगा। फिलहाल हमारी चुनौती यह है कि हमें कोरोना महामारी से भी जंग लड़नी है, गिरती अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर भी जूझना है और भौगोलिक सरहदों की हिफाजत के लिए भी तैयार रहना है। यह देश के लिए परीक्षा की घड़़ी है। एक नागरिक के स्तर पर भी और नेतृत्व के स्तर पर भी। दुर्योग से ऐसे मौकों पर जो राजनीतिक एकजुटता दिखनी चाहिए, वह बहुत मुखर नहीं है। सरकार को विदेश नीति के मसले पर समूचे विपक्ष को भरोसे में लेकर रणनीति बनानी चाहिए, ताकि सामूहिक प्रतिबद्धता के समवेत स्वर सरहद पार पहुंचें। ये स्वर विरोधी सत्ता प्रतिष्ठानों के मनोविज्ञान को तो छूते ही हैं, देश के भीतर भी नया आत्मविश्वास भरते हैं। बीजिंग की पैंतरेबाजी और प्रॉपगैंडा का जवाब भी इसी में है। भारत को अब उससे सीमा पर ही नहीं, सोच के मैदान में भी निपटना है।
ताजा घटनाक्रमों के बारे में भारतीय सेना ने स्पष्ट कर दिया है कि चीनी सैनिक ‘फॉरवर्ड पोजिशन’ के करीब आने की कोशिश कर रहे थे और जब दिलेर भारतीय जवानों ने उनकी कोशिश नाकाम कर दी, तो उन्होंने डराने के लिए हवा में गोलियां दागीं। भारतीय सेना तो शुरू से ही एलएसी पर शांति और विश्वास बहाली के प्रति प्रतिबद्ध रही है, लेकिन अपने देश की संप्रभुता और अखंडता से वह कोई समझौता नहीं करेगी। पीपुल्स लिबरेशन आर्मी गलवान घाटी की 15 जून की घटना के बाद से अब तक उद्धत रवैया अपनाए हुए है। लेकिन बीजिंग को यह समझना होगा कि इस तनावपूर्ण स्थिति की कीमत उसे भी चुकानी होगी। कुछ कदम तो भारत सरकार उठा भी चुकी है और कुछ अन्य सख्त कदमों के लिए उस पर जन-दबाव बढ़ता जा रहा है। विदेश मंत्री एस जयशंकर ने भी साफ कर दिया है कि सरहदी मुल्कों के रिश्ते सीमा से निरपेक्ष नहीं होते। इसलिए अब तय बीजिंग को करना है।