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अहमदाबाद। महान व्यक्ति जीवन में कोई बड़ा कार्य करने से नहीं बल्कि कार्य को अलग तरीके से करने से महान बनते हैं। ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व के स्वामी थे अजात शत्रु, व्याख्यान वाचस्पति प.पू.दादा गुरूदेव लब्धि सूरीश्वरजी म.सा. गुणानुरागी पू.दादा गुरूदेव के गुणानुवाद करने भारत वर्ष के समस्त भाविक तत्पर बने है।
अहमदाबाद के श्री प्रेरणा तीर्थ जैन संघ में चातुर्मास हेतु बिराजमान सरल स्वभावी गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश् वरजी म.सा. ने उपस्थित गुणानुरागी आराधको को संबोधित करते हुए फरमाया कि यह अपना परम सौभाग्य है कि ऐसे महापुरूष अध्यात्म योगी के गुणानुनाद करने का और सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। एक बार पू. दादा गुरूदेव जब पंजाब के विस्तार में विचरण कर रहे थे तब उनके शिष्य से भूल में गोचरी में भांग आ गई। जैसे उसका नशा चढऩे लगा पू.दादा गुरूदेव ने शिष्य को पूछा कि क्या तुम गोचरी में भांग ले आये हो? शिष्य ने डरते-डरते हां कहा। पू.दादा गुरूदेव ने अपने शिष्य को कहा कोई बात नहीं अब मुझे एक कलम और कागज दे दो। भांग के नशे में पू.दादा गुरूदेव ने अलग-अलग छंदों में संस्कृत भाषा में चौबीस तीर्थंकर परमात्मा के चैत्यवंदन तथा स्तुति की रचना की। उनकी यह रचना काव्य शास्त्रों का एक गौरवशाली स्थान को प्राप्त करने के साथ-साथ संस्कृत भाषा के वैभव मेें वृद्धि करता है। नशे में सामन्यतया लोग असभ्य व्यवहार कर बैठते है पर यह तो महापुरूष थे, महायोगी थे, अत: अद्वितीय कार्य करने बैठ गए। ऐसे महान कवि पू.दादा गुरूदेव की आत्म जागृति संयम की परिणति का अंश हमारे में आये ऐसी शुभ भावना के साथ सब उनके जीवन का दूसरा प्रसंग निहालते है।
पूज्य दादा गुरूदेव वादि भी थे और अजात शत्रु भी थे। यह दोनों असल में एक ही व्यक्ति में हो पाना कठिन है लेकिन जहां गुणों का राग हो गुणदृष्टि हो वहीं यह संभव हो सकता है। एक बार पूज्य दादा गुरूदेव स्वामि मुकुंदाश्रम के साथ वाद-विवाद करने आमने-सामने आये। स्वामिजी का अभिमत था कि वेद अनादिकालीन है उनको बनाने वालाकोई नहीं। इस विषय में लगभग तीन दिन तक संस्कृत भाषा में वाद चला और अंत में पू.दादा गुरूदेव ने स्वामिजी को निरूत्तर कर पराभूत कर दिए। किंतु पूज्य दादा गुरूदेव पर-पराभव में आनंद लेने वाले नहीं थे। अत: वाद के अंत में जब स्वामिजी का मायूस चेहरा देखा तो दादा गुरूदेव ने कहा, पंडित जी आप मायूस ना हो, मैं स्याद्वाद से आपका अभिमत भी सिद्ध कर सकता है। और दादा गुरूदेव ने वहीं सबके सामने पुन: स्याद्वाद से स्वामिजी का अभिमत भी सिद्ध कर दिखाया। संपूर्ण सभा और विशेष रूप से स्वामिजी पू.दादा गुरूदेव की इस अनुपम युक्ति को देख अत्यंत प्रसन्न हुए। 
स्वामिजी ने भी देखा कि मैं अपने आपको पराभव से अपमानित हुआ मानता था लेकिन यदि मेरे विजेता में अपमानित करने की लेशमात्र भी इच्छा ना हो तो मुझे खेद करने की कोई आवश्यकता नहीं है। प्रतिभाव के रूप स्वामिजी का ह्रदय पूज्य दादा गुरूदेव की उदारता, ह्रदय की विशालता के आगे झुक गया। वादियों के लिए मन समतुल रख पाना कठिन होता है लेकिन पूज्य दादा गुरूदेव के लिए यह सहज था। इस तरह से पूज्य दादा गुरूदेव केवल वाद विजेता नहीं अपितु वादि विजेता बनें। ऐसे तो प्राय: पांच वादों में दादा गुरूदेव ने जीत हासिल की और अद्भुत शासन प्रभावना की। ऐसे महापुरूषों के गुणमान करते शायद शब्द अल्प पड़ जायेंगे लेकिन उनके संपूर्ण गुणों का गान कर पाना असंभव होगा। बस पूज्य दादा गुरूदेव के 60 मी.पुण्यतिथि के अलक्ष में पूज्यश्री ने सबको लब्धि आशीष के रूप में फरमाया कि संपूर्ण दिन में एक घंटा केवल किसी के भी गुणों का गान करना। अपने में रही हुई दोष दृटि को दूर करने गुण दृष्टि को प्रगटाकर गुणानुरागी बन पूज्य दादा गुरूदेव को यह भावांजलि अर्पण करें।