अहमदाबाद। इस विश्व में कई प्रकार के धर्म है। कई प्रकार के सिद्धांत है। भारत के संविधान के मुताबिक प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद अनुसार धर्म आदि चुनने का अधिकार है जबकि विदेशों में कोई-कोई राज्य के धर्म फिक्स ही होते हैं। प्राय: हिन्दू धर्म, जैन धर्म, स्वामी नारायण संप्रदाय इन सभी धर्मों में सबसे प्राचीन जैन धर्म ही है। इसका एक पुराना यह है कि ईसाई धर्म के जीसस क्राइस्ट की मृत्यु के पश्चात् ही यह तारीख का पंचांग आया तब तक तो सब तिथि के मुताबिक ही चलता था। जीसस क्राईस्ट का जन्म भी तिथि में ही लिखा गया। तत्पश्चात् ही तारीख का केलन्डर प्रचलित हुआ है।
मौलिक चिंत, सर्व धर्म शास्त्र ज्ञाता, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित श्रोताओं को संबोधित करते हुए फरमाया कि सर्व धर्मों का, धर्म सिद्धांतों का आदर अवश्य करना चाहिए। साथ ही जैन धर्म की प्राचीनता को लक्ष्य में रखना चाहिए। सर्व धर्मों में एक जैन धर्म ही ऐसा है जो अनेकांतवाद और स्यादवाद के द्वारा सब सिद्धांतों को सिद्ध कर सर्व धर्मों को स्वयं में समाविष्ट करने की एक विशिष्ट शक्ति रखता है। यह धर्म सर्वज्ञ कथि धर्म है। सर्वज्ञ यानी जिन्हें चौदह राजलोक के समस्त जीवों के भूत, वर्तमान तथा भविष्य के ज्ञाता। भगवती सूत्र नामक महान आगम ग्रंथ में परमात्मा वीर बार-बार एक ही कहते है कि अनंत जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित धर्म ही मैं आपको बता रहा हूं। अत: कहा गया है कि जैन धर्म मंगल है, प्रवर्तक है तथा संपूर्ण है। धर्म तो ऐसा होता है कि जो भी उसकी आराधना करे मंगल-मंगल ही होता है। सर्वज्ञ कथित धर्म में बहुत ही सूक्ष्मता से प्रत्येक सिद्धांत को बताया गया है। परमात्मा द्वारा प्ररूपित धर्म के पालन से एक भी जीव का जीवन खतरे में तो क्या बाल भी बांका नहीं हुआ। जैन धर्म को संपूर्ण जानने के बाद समझने के बाद कोई आत्मा ऐसा नहीं है जो इसकी तरफ आकर्षित ना हुआ हो। एक भाई आये और पूछा आप कौन? कहां से आये? तो उत्तर मिला मैं तो टाटा कंपनी से हूं यह टाटा कंपनी मेरी है। सब चौंक गए फिर पूछने लगे कि क्या आप रतन टाटा हो? तो उन्होंने कहा नहीं भाई मैं रतन टाटा नहीं लेकिन इस कंपनी में मेरे पांच शेयरस् है। तो कंपनी में मेरा हिस्सा तो है ना। पू्ज्यश्री ने इस छोटे से दृष्टांत यही समझाया कि भले ही अपन ने शासन की स्थापना ना की हो लेकिन शासन में शेयर होल्डर होने से शासन अपना है। अत: शासन का, धर्म का प्रवर्तन करना अपनी फर्ज बनती है और अधिकार भी है। वर्तमान में जैनधर्म की परिस्थिति बड़ी ही दयनीय है क्योंकि जहां आचार्य भगवंत और श्रवण भगवंत ना हो तो धर्म का प्रवर्तन करने वाले कोई नहीं होता। श्रावक धर्म का प्रवर्तन नहीं करते परिणाम स्वरूप चालीस करोड जैनों की संख्या घटते-घटते बहुत अल्प हो गई है कि वर्तमान में जैन धर्म अल्प संख्यक में गिना जाता है। ऐसे कितने ही क्षेत्र है जहां जैन धर्म के अनुयायी पास करते है किंतु वे जैन धर्म को ना तो जानते है ना ही समझते है। ऐसे ही अनेक क्षेत्रों में जैन श्रावकों को अलग-अलग नाम से जानते है। उनमें से एक जाति का नाम सराग जाति है। इनकी भावुकता तथा निर्दोषता को देखकर कलिकुंडवाले पू. राजेंद्र सू.म.सा ने निश्चय कर लिया कि कैसे भी करके इन लोगों में जैनत्व के संस्कारों का सिंचन करना है। लेकिन सव जगह पे साधू भगवंतों का पहुंच पाना कठिन होता है। उनके अधूरे स्वप्न को उनके शिष्य-प्रशिष्यों ने पूर्ण करने का दृढ़ निश्चय किया और आज कितने ही युवानों को तैयार करके ऐसे स्थलों में पर्युषण महापर्व की आराधना कराने भेजते है। पूज्यश्री ने फरमाया कि संख्या घट रही है वो अपने हाथ में नहीं है किंतु जितनी है उसे मेंटेन करना यानि बनाये रखना अथवा तो वृद्धि करना वो अपने हाथ में है। इस महाअभियान दरम्यान अहमदाबाद के राज परिवार के युवकों ने गच्छाधिपति गुरूदेव के करकमलों द्वारा दस हजार रक्षा पोटलियों पे अभिमंत्रित वासक्षेप करवाया तथा उपस्थित श्री संघ ने उन रक्षा पोटलियों को अंतर के भावों से तथा अक्षतों से वधाया। इन रक्षा पोटलियों को राज परिवार संगठन के युवान उन सराग श्रावकों को भेंट देंगे जिससे उनकी श्रद्धा-समर्पण और भी दृढ़ हो। सभी अहो जिनशासनम् तथा जैन जयति शासनम् के बनाद से गूंज उठी।
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