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मुंबई। आज का वर्तमान संसार स्वार्थ परायण बनते जा रहा है। हर मानव के जीवन पर दृष्टिपात करने से पता चलेगा कि मानव परोपकारी नहीं बल्कि स्वार्थी बनते जा रहा है। उसके जीवन के केन्द्र में स्वार्थ आ गया है। मैं और मेरा ही उसका संसार बन गया है। मानव सुखी बनने के उद्देश्य से स्वार्थी बनता है किन्तु उसकी यह विचारधारा सही नहीं है। स्वार्थी बनने से इंसान कभी सुखी नहीं बनता है।
प्रखर प्रवचनकार, संत मनीषि, प्रसिद्ध जैनाचार्य प.पू. राजयश सूरीश्वरजी महाराजा श्रोताजनों को संबोधित करते हुए एक छोटे सो दृष्टांत से समझाते है आपको मकान बनाना है। मकान बनाने के लिए आपने गड्डा खुदवाया। मकान बनाना आपका स्वार्थ था अत: उसे पूर्ण करने के लिए आपने गड्डा खुदवाया किन्तु रात्रि को उसे ऐसे ही छोड़ दिया। आपने अपना स्वार्थ सोचा। मानलो कोई युवा उसी रास्ते से रात्रि में पसार हो रहा उसे वह गड्डा न दिखे और वह उसमें गिर जाए जिसके कारण उसके हाथ एवं पैर में फ्रैक्चर हो जाए तो नुकसान अन्य को है हमें सिर्फ अपने स्वार्थ को नहीं देखना। दूसरों का भी विचारना है।
प्रवचन की धारा को आगे बढ़ाते हुए पूज्यश्री फरमाते है अभी आगे देखते है जो युवान गड्डे में गिरा था वह युवान अकेला अपने वृद्ध माता, पिता, विधवा बहन, पत्नी एवं खुद के बच्चों का भरण पोषण करता था। इन सबके आधार स्तंभ वह युवान था। उसके फ्रैक्चर का समाचार सुनकर उनके रिश्तेदार आंसू बहायेंगे साथ ही आपको कैसा आशीर्वाद देंगे? आप ही सोचो? उन गरीबों की, वृद्धों की, निराश्रितों की हाय आपको मिलेगी तो आप सुखी कैसे हो सकोंगे? भले आपने करोड़ रुपये का बंगला क्यों न बनाया हो उसमें आपको शांति सुख एवं समाधि नहीं मिल सकती।
पूज्यश्री फरमाते है आपको सिर्फ अपने स्वार्थ का ही नहीं सोचना है, दूसरों का भी विचार करना है जहां दूसरों का विचार करने की क्षमता पैदा होती है तभी वह व्यक्ति धर्म करने के लायक उसमें योग्यता पैदा होती है।
स्वामी विवेकानंद के जीवन का एक का प्रसंग है। एक बार वें अपने माताजी से अनुमति मांगते है मां! मैं धर्म प्रचार करने परदेश जाना चाहता हूं आप अुमति दो तो। माताजी ने कहा, जा पहले रसोईघर से चक्कु लेकर आ। स्वामी विवेकानंद चक्कु लेकर आए। उन्होंने चक्कु की धारदार पत्ती अपने हाथ में रखी एवं लकड़ी का हैंडल वाला भाग माताजी की तरफ आगे बढ़ाकर बोले, ये लीजिए मां। तब माताजी बोली, जा बेटा तुं धर्म करने एवं धर्म का प्रचार करने के योग्य है क्योंकि तुं दूसरे का विचार कर सकता है।तुने चक्कु मुझे लग न जाए इसलिए धारवाला भाग तेरी तरफ रका इसलिए तुं मेरी कसौटी से पार उतरा।
जब तक हम अपने स्वयं का विचार करते रहेंगे तब तक धर्म की योग्यता भी हममें नहीं आएगी सिर्फ स्वार्थी बनकर रह जाएगें किन्तु जब दूसरों का विचार करने की जागृति हममें पैदा होगी तभी हम परमार्थ के कार्यों को करने के लिए आगे बढ़ सकेंगे। आप जानवरों में देखो। कौए भी कॉऊ काऊं कर भोजन के समय अपने जाति भाईयों को एकत्रित करते है किन्तु अफसोस इस बात का है कि इंसान भोजन के समय इंसान को भूलजाता है क्योंकि वह स्वार्थी हो गया है। एक बात तो निश्चित है कि अपना एवं अपने परिवार का भरण पोषण तो जानवर भी कर लेते है यदि इंसार भी अपना एवं अपने परिवार का ही पालन पोषण करता रहा तो उसने उस पशु से अधिक क्या कार्य किया? आज लोग एक दूसरे के काम नहीं आते अपने ही स्वार्थ की सोचते है।
आज बड़े अफसोस से कहना पड़ता है कि दुनिया की सब चीज काम में आ सकती है किन्तु इंसान ही इंसान के काम न आए तो जीवन जीने का अर्थ क्या? स्वार्थ को गौण करके परमार्थ को करके शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें।