विनोद पाठक
10 मीटर एयर राइफल में गोल्ड जीतने वाली अवनि लेखरा मात्र 19 वर्ष की हैं। वो भारत की ओर से ओलंपिक स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतने वाली पहली महिला और सबसे युवा खिलाड़ी हैं।
अर्जुन अवॉर्ड और पद्मश्री से सम्मानित देवेंद्र एकमात्र भारतीय हैं, जिन्होंने एथेंस और रियो पैरालिंपिक में गोल्ड और अब टोक्यो पैरालिंपिक में सिल्वर मेडल जीता है। इन दिव्यांग खिलाडिय़ों से न केवल प्रेरणा लेनी चाहिए, बल्कि हार को जीत में कैसे बदला जाता है, यह हौसला स्वयं के अंदर लाने की आवश्यकता है।
10 मीटर एयर राइफल में गोल्ड जीतने वाली अवनि लेखरा मात्र 19 वर्ष की हैं। वो भारत की ओर से ओलंपिक स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतने वाली पहली महिला और सबसे युवा खिलाड़ी हैं। 10 मीटर एयर राइफल में गोल्ड जीतने वाली अवनि लेखरा मात्र 19 वर्ष की हैं। वो भारत की ओर से ओलंपिक स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतने वाली पहली महिला और सबसे युवा खिलाड़ी हैं।
टोक्यो पैरालिंपिक में तिरंगा लहरा रहा है। शूटर अवनि लेखरा के गोल्ड के अलावा चार सिल्वर और दो ब्रॉन्ज मेडल भारत अपने नाम कर चुका है। पैरालिंपिक के एक-एक खिलाड़ी की कहानी जज्बे, जोश और जुनून से भरी हुई है। इन खिलाडिय़ों की सफलता आज सुनने में भले खूबसूरत लगती है, लेकिन इसके पीछे संघर्ष की लंबी गाथा है। किसी ने दुर्घटना में पैर गंवाए तो किसी का बिजली के नंगे तारों से हाथ कट गया।
दरअसल, आज के दौरान में जब लोग निराशा और अवसाद का शिकार हो रहे हैं, तब इन खिलाडिय़ों की कहानियां निश्चित ही जीने की राह दिखाती हैं। निगेटिव से पॉजिटिव होने की इससे अच्छी डोज शायद ही कोई हो। हमारी युवा पीढ़ी को इन दिव्यांग खिलाडिय़ों से न केवल प्रेरणा लेनी चाहिए, बल्कि हार को जीत में कैसे बदला जाता है, यह हौसला स्वयं के अंदर लाने की आवश्यकता है। 10 मीटर एयर राइफल में गोल्ड जीतने वाली अवनि लेखरा मात्र 19 वर्ष की हैं। वो भारत की ओर से ओलंपिक स्पर्धा में गोल्ड मेडल जीतने वाली पहली महिला और सबसे युवा खिलाड़ी हैं। जयपुर की अवनि जब 9 वर्ष की थी, तब कार दुर्घटना में उन्होंने दोनों पैर गंवा दिए। व्हीलचेयर पर आ गईं और अवसाद में चली गईं।
बाद में परिवार ने अवनि का साथ दिया। बेटी का मन बहल जाए, इसलिए पिता प्रवीण लेखरा उन्हें शूटिंग रेंज पर ले गए। पहली बार में तो अवनि राइफल तक नहीं उठा सकी थीं। कोरोना के दौरान जब शूटिंग रेंज बंद हो गई तो पिता ने अवनि की जिद पर घर पर डिजिटल टारगेट लगा दिया। अवनि ने न अपनी अपंगता को आड़े आने दिया और न लक्ष्य को परिस्थितियों के भरोसे छोड़ा। भाला फेंक में सोनीपत (हरियाणा) के सुमित आंतिल ने भारत के लिए दूसरा गोल्ड मेडल जीता। 23 वर्ष के युवा सुमित जब मात्र 7 साल के थे, तब पिता का साया सिर से उठ गया। मां ने सुमित और उनके तीन भाई-बहनों को पाला। सुमित के दु:ख यही खत्म नहीं हुए। जनवरी 2015 में सड़क हादसे में सुमित का बायां पैर कट गया। वो कृत्रिम पैर के सहारे चलते हैं, लेकिन न तो सुमित अवसाद में गए और न जीवन जीने का हौसला कम हुआ।
टोक्यो पैरालिंपिक में 68.55 मीटर दूर भाला फेंककर सुमित ने नया वर्ल्ड रिकॉर्ड बना दिया है। सुमित की कहानी यही प्रेरणा देती है कि सुख-दु:ख जीवन का हिस्सा हैं, हमें हर तरीके के हालातों से लडऩा है और जीत हासिल करनी है। अर्जुन अवॉर्ड और पद्मश्री से सम्मानित देवेंद्र एकमात्र भारतीय हैं, जिन्होंने एथेंस और रियो पैरालिंपिक में गोल्ड और अब टोक्यो पैरालिंपिक में सिल्वर मेडल जीता है। अर्जुन अवॉर्ड और पद्मश्री से सम्मानित देवेंद्र एकमात्र भारतीय हैं, जिन्होंने एथेंस और रियो पैरालिंपिक में गोल्ड और अब टोक्यो पैरालिंपिक में सिल्वर मेडल जीता है।
चूरू (राजस्थान) के छोटे से गांव झाझडिय़ा में 1981 में जन्मे 40 वर्षीय देवेंद्र झाझडिय़ा आज युवाओं के रोल मॉडल हैं। अर्जुन अवॉर्ड और पद्मश्री से सम्मानित देवेंद्र एकमात्र भारतीय हैं, जिन्होंने एथेंस और रियो पैरालिंपिक में गोल्ड और अब टोक्यो पैरालिंपिक में सिल्वर मेडल जीता है। देवेंद्र जब आठ वर्ष के थे, तब पेड़ पर चढ़ते समय बिजली के तारों की चपेट में आने से उनका बायां हाथ जख्मी हो गया, जिसे काटना पड़ा। देवेंद्र का परिवार गरीब था। परिवार के पास जरूरी संसाधन नहीं थे। विषम परिस्थितियों के बावजूद मां ने उन्हें खिलाड़ी बनने की प्रेरणा दी। शुरुआत में छोटे देवेंद्र रेत के टीलों पर बांस को फेंककर प्रैक्टिस किया करते थे। बाद में पेड़ की टहनी से अभ्यास करने लगे।
1997 में स्कूल के स्पोटर्स डे पर उन्होंने भाला फेंक प्रतियोगिता में गोल्ड मेडल जीता था। तब वहां द्रोर्णाचार्य अवॉर्डी कोच आर.डी. सिंह ने उनकी प्रतिभा को पहचाना। 2002 में देवेंद्र ने साउथ कोरिया में आठवें पेसपिक खेलों में गोल्ड मेडल जीता। एक समय देवेंद्र के परिवार के पास भाला खरीदने के पैसे नहीं थे, लेकिन परिस्थितियों के आगे उन्होंने घुटने नहीं टेके। टोक्यो पैरालिंपिक में भाला फेंक में ब्रॉन्ज जीतने वाले करौली (राजस्थान) के सुंदर गुर्जर वर्ष 2015 तक सामान्य खिलाड़ी थे, लेकिन प्राकृतिक आपदा के दौरान टीन शेड उड़कर सुंदर पर गिरा और उनका बायां हाथ कट गया। खेल छूट गया। चूंकि, खेल सुंदर के तन-मन में बसा हुआ था, इसलिए उन्होंने बतौर पैरा खिलाड़ी करियर बनाने की ठान ली। 68.42 मीटर भाला फेंकने का नेशनल रिकॉर्ड भी सुंदर के नाम है।
2016 में सुंदर ने रियो पैरालिंपिक के लिए क्वालिफाई किया। टॉप पर भी रहे, लेकिन कॉल रूम में लेट एंट्री के कारण डिस्क्वालिफाई कर दिए गए और खाली हाथ देश लौटना पड़ा। रियो में निराशा भले मिली हो, पर सुंदर का हौसला नहीं टूटा। 2017 में लंदन और 2019 में दुबई वर्ल्ड पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में सुंदर ने गोल्ड पदक जीता। अर्जुन अवॉर्ड से सम्मानित सुंदर गुर्जर आज लाखों युवाओं की प्रेरणा बने हुए हैं।
टोक्यो पैरालिंपिक में देश को पहला मेडल दिलाने वाली भाविना पटेल जब एक साल की थीं, तब पोलियो ने उनके दोनों पैर निष्क्रिय कर दिए। पिता गांव में छोटी सी दुकान चलाते थे। कक्षा 12 तक पढ़ाई गांव के स्कूल से की। आगे की पढ़ाई के लिए अहमदाबाद आईं और आत्मनिर्भर होने के लिए कंप्यूटर कोर्स करना शुरू किया, जिसके लिए 25 किलोमीटर का सफर दो बस और दो ऑटो बदलकर करना पड़ता था। जहां कंप्यूटर सीख रही थीं, वहां कुछ लड़कियां व्हीलचेयर पर टेबल टेनिस खेलती थीं। भाविना ने भी खेलना शुरू किया। 2007 में बेंगलूरु में रोटरी क्लब के व्हीलचेयर टूर्नामेंट में ब्रॉन्ज जीता और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 2011 में बैंकॉक ओपन में सिल्वर जीता, लेकिन कहीं कारणवश रियो पैरालिंपिक के क्वालिफाई इवेंट में भाग नहीं ले पाईं। टोक्यो में सिल्वर मेडल जीतकर उन्होंने खुद का और देश का नाम रोशन किया है। भाविना ने अपनी अक्षमता को कभी बहानों की ढाल नहीं बनाया। आज हर जुबां पर भाविना पटेल का नाम है।
हिमाचल प्रदेश के मजदूर माता-पिता के बेटे निषाद कुमार जब आठ साल के थे, तब चारा मशीन में उनका दायां हाथ कट गया। माता-पिता ने बेहद संघर्ष कर निषाद को पढ़ाया। हाथ कटा होने के बावजूद वो सामान्य श्रेणी के बच्चों के बीच हाईजंप में मेडल जीतते थे। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, इसलिए दोस्त और कोच उन्हें हर महीने पैसे देते थे। उनके जज्बे ने उन्हें 2019 में बेंगलूरु के नेशनल कैंप तक पहुंचा दिया।
कड़ी कोचिंग के बाद टोक्यो में उन्होंने सिल्वर मेडल जीत इतिहास रच दिया है। 2.06 मीटर हाईजंप का नेशनल रिकॉर्ड भी निषाद के नाम है। निषाद की संघर्षगाथा यही बताती है कि परिस्थितियों को अपने बल पर बदला जा सकता है। राजधानी दिल्ली के रहने वाले योगेश कथुनिया ने टोक्यो पैरालिंपिक में डिस्कस थ्रो में देश को सिल्वर मेडल दिलाया है। योगेश की कहानी निषाद और देवेंद्र जैसी ही है। आठ साल की उम्र में शरीर को लकवा मार गया। स्कूल समय में तो उन्हें कोचिंग देने वाला कोई नहीं था। जब ग्रेजुएशन के लिए किरोड़ीमल कॉलेज, दिल्ली पहुंचे तो कोच की निगाह उन पर गई। फिर जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में कोच सत्यपाल सिंह ने उन्हें निखारा। 2019 में दुबई वर्ल्ड पैरा एथलेटिक्स चैंपियनशिप में योगेश ने डिस्कस थ्रो में ब्रॉन्ज जीतकर टोक्यो के लिए क्वालिफाई किया। टोक्यो पैरालिंपिक में सिल्वर जीतने वाले योगेश ने पेरिस में गोल्ड जीतने का लक्ष्य रखा है। योगेश युवाओं को निरंतर सफलता के लिए संघर्ष करते रहने की प्रेरणा देते हैं।
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