
अहमदाबाद। किसी व्यक्ति को मिलने की आतुरता हो तो वेसब्री से उसका इंतजार किया जाता है। उसके आने की खबर सुनकर ही मन मयूर नाच उठता है। जब उसे लेने की खबर सुनकर ही मन मयूर नाच उठता है। जब उसे लेने जाना होता है और स्टेशन पहुंचकर पता चले कि उसकी गाड़ी आधा घंटा लेट है तो हालत इतनी खराब होती है कि ना पूछा बात। इसी बेसब्री से इंतजार कर रहे पर्वाधिराज पर्युषण का आगमन भी कुछ ही घंटों में होने वाला है।
अनेक प्राचीन तीर्थोद्धारक, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित भाविकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि आराधना तो प्रतिदिन करनी ही चाहिए परंतु पर्व के दिनों में विशेष रूप से दान-शील-तप-भाव चारों प्रकार के धर्म की अधिक से अधिक आराधना करनी चाहिए। आराधना करने से परमात्मा की आज्ञा पालन करने का लाभ मिलता है। स्वयं प्रभु वीर ने भी साढ़े बारह पर्व का दीर्घ समय घोर तप व आराधना में पसार किया तब जाकर उन्हें कैवल्य ज्ञान की लक्ष्मी प्राप्त हुई। शास्त्रकार भगवंत कहते है कि जैन धर्म में जन्म लेना महापुण्याई की निाशानी है। यह धर्म दुर्लभ है अत: महापुण्योदय से ही प्राप्त किया जा सकता है। विदेश के एक सुप्रसिद्ध व्यक्तित्व जॉर्ज बेनॉर्ड शॉ ने भई अपने वक्तव्य में कहा कि यदि मेरा पुनर्जन्म हो तो जैन धर्म में ही हो। यह धर्म इतना विस्तृत है, इतना वैविध्यकरण है इतनो सूक्ष्म सिद्धांतों को दर्शाता है कि जो इसे समझे वो इसका दिवाना ही हो जाये।
दान धर्म में आगे बढऩा यानि अपनी आवश्यकता से अधिक जो भी कुछ कमाया हो उसका यथोचित दान करना। अनुकंपा दान, सुपात्र दान, अभय दान आदि दान के विविध प्रकार है। पुण्या श्रावक दो आणे में स्वयं की आजीविका भी चलाते थे और अपने एक साधर्मिक भाई की भक्ति भी करते। आनंद श्रावक और उनकी श्राविका दोनों बारी-बारी से एकांतर उपवास की आराधना करते ताकि प्रतिदिन एक साधर्मिक की भक्ति कर सके। धन्य है इनके दृढ़ निश्चित को, अटल मनोबल को। प्रत्येक आराधना से पुण्योपार्जन होता है लेकिन तप धर्म की आराधना से निर्जरा होती है, कर्मों की निर्जरा होती है। विशेष रूप से सभी तप धर्म की ही आराधना करते है। कोई मासक्षमण तप करते हैं तो कोई सिद्धि तप की आराधना करते है। इन सभई प्रकार के धर्मों की आराधना में अपने मन के भाव-परिणाम अत्यंत अनिवार्य है। भाव शून्य क्रिया का कोई अर्थ नहीं होता अत: प्रत्येक क्रिया भावपूर्वक ही करनी चाहिए। पूज्यश्री फरमाते है कि मन में जो एक बार निश्चय कर लेते है वह सब अपने आप ही हो जाता है। कोई भी क्रिया-कार्य करने के पूर्व विवेक से सोच लेना चाहिए। एक भाई को कहा था कि कुछ भी करने से पूर्व अच्छी तरह से सोच लेना। छ: महिने तक विचारा वह सोचता रहा और फिर उसने भैंस के सींग के बीच अपना मस्तक घुसा दिया। इसलिये कहते है विवेक से सोचना चाहिए। कब, जहां किस समय पे, स्थान पे कौन सी चीज की आवश्यकता है वह विवेक से सोचकर कार्य करना चाहिए। पर्युषण पर्व की आराधना करने के लिए भी सोच-समझकर प्लानिंग कर लेना चाहिए। पौषध व्रत, देसावगासिक व्रत, सामायिक व्रत, उपवास, आयंबिल, एकाशणा, बिसायणा आदि कौन से प्रकार के व्रत- पच्चक्खाण से आत्मा शुद्धि करना है। आत्म शुद्धि के अनेक योग बताये है उनमें से जो चाहे वह चुन सकते है। किंतु भावपूर्वक करना ताकि उसका संपूर्ण लाभ प्राप्त हो सके। पर्युषण महापर्व में श्रावक के पांच कत्र्तव्य और वाषिक ग्यारह कर्तव्यों का अद्भुत वर्णन सुनाया और समझाया जायेगा। बस क्षमा याचना, क्षमा दान से इस आत्म-शुद्धि पर्व को मनाये और शीघ्र निर्मल बन परम पद को प्राप्त करे यही मंगलमय भावना।