Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

अहमदाबाद। जन्म तो सब लेते हैं लेकिन महान तो कोई विरले ही बनते है। व्यक्ति अपनी साधना और उपासना से ही महान बनते हैं। अपने जीवन का प्रथम पन्ना जन्म और तीसरा पन्ना मृत्यु तो सबका निश्चित ही होता है लेकिन दूसरे नंबर के पन्ने पे सब स्वयं लिखते है। उस पर क्या और कैसे लिखना वो खुद-खुद के हाथ में है। सिद्धार्थ कुलदीपक, त्रिशलानंदन, शासन नायक श्री वीर परमात्मा ने भी अपने दूसरे नंबर का पन्ना साधना-उपासना तथा क्षमा आदि अनेक गुणों द्वारा लिखा जिससे वे त्रैलोक्य पूजित बनें। सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ. देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने अपने मीठी वाणी द्वारा उपस्थित भाविकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि आज का दिन जैनों के लिए एक अनेरा उत्साह, आनंद, उल्लास का दिन है। कल्पसूत्र जैन संघों में, अनुयायियों में आनंद की लहर छा गई है। आसन्न उपकारी, शासनपति श्री वीर परमात्मा के जन्मवांचन श्रवण मात्र से सर्वत्र खुशियां और आनंद छा गई तो सोचो जब साक्षात् प्रभु का अवतरण हुआ होगा तब कितना आनंद हुआ होगा। केवल मनुष्य लोक में ही नहीं परंतु देव लोक और अधोलोकवासी भी आनंद-शाता एवं समाधि का अनुभव करते है। चौदह-चौदह महास्वप्न से सूचित ऐसे परमात्मा का आगमन कितना आह्लादक, आनंददायक, मंगलकारी होगा थे तो सब सोच ही सकते है।
यह सब सिर्फ और सिर्फ परमात्मा द्वारा सवि जीव करूं शासन रसी की भावना का ही परिणाम है। प्रत्येक जीव के प्रति अत्यंत करुणा प्रेम के कारण प्रभु को जगत् माता भी कहा जाता है। गर्भस्थ अवस्था में ही तीन-तीन ज्ञान के स्वामि और अपनी माता को दर्द ना हो-पीड़ा नो हो इस हेतु से अपने अंगोपांग संकुचित कर दिये। गर्भ के हलन-चलन ना होने से त्रिशला क्षत्रियाणी विलाप करने लगी प्रभु को जब अपने ज्ञान द्वारा इस बात का पता चला तो उन्होंने तत्काल संकल्प किया कि जब एक मेरे माता-पिता जीवित होंगे तब तक मैं दीक्षा ग्रहण नहीं करूंगा। केवल हलन-चलन ला होने से यदि मेरी मां को इतना दु:ख हुआ तो मैं दीक्षा लूंगा तो उन्हें कितना दु:ख होगा? यह सोचकर माता-पिता की सेवा करने के उत्कृष्ट भाव से संकल्प किया तथा सबको माता-पिता को उपकारों का ज्ञान हो उसकी महत्ता का ज्ञान हो ऐसे आदर्श स्वरूप परमात्मा ने यह महान संकल्प किया।
बाल्यावस्था से ही होशियार तथा बुद्धिमान ऐसे वर्धमान कुमार को पाठशाला भेजने का निश्चित हुआ। तब इंद्र महाराजा ने ज्ञान के उपयोग द्वारा यह बात जानकर वहां ब्राम्हण का रूप लेकर आये और वीर परमात्मा को प्रश्न पूछने लगे। सभी प्रश्नों के उत्तर सही दिये ये सुनकर और देखकर पाठशाला के गुरूजी ने वर्धमान कुमार के माता-पिता को कहा कि आपका बालक कोई सामान्य बालक नहीं है। वह तो पंडितों को भी निरूत्तर कर दें ऐसे ज्ञान का स्वामि है। अत: इसे पाठशाला में पढ़ाने की कोई आवश्यकता नहीं है। योग्य समय देखकर वर्धमान कुमार का विवाह किया गया। मन से वैरागी परमात्मा को पता था कि संसार को सीमित कर, त्याग कर संयम पथ पे आगे बढऩा ही जीवन का सार है। लेकिन कर्म सत्ता के आगे किसी की नहीं चलती। थोड़े समय में माता-पिता का देहांत हुआ। प्राय: प्रभु ने तीस वर्ष की वय में संयम ग्रहण करने का निर्णय किया लेकिन ज्येष्ट भ्राता नंदीवर्धन ने कहा, अभी-अभी तो माता-पिता की मृत्यु हुई। उनके विरह के घाव को तो भर नहीं पाया उसके पूर्व ही तुम दूसरा घाव, प्रहार करने की बात ना करो ज्येष्ठ भ्राता की आज्ञा से विरषत मन वाले प्रभु एक वर्ष संसार में रहे और सांससरिक दान देना प्रारंभ किया। निरंतर एक वर्ष तक प्रभु ने खुले हाथ में दान दिया। एक वर्ष का समय प्रभु भले ही संसार में अपने ज्येष्ट भ्रांता के कहने से रहे लेकिन उन्होंने संसार की तमाम प्रवृत्तियों का त्याग कर दिया था। एक वर्ष का समय प्रभु भले ही संसार में अपने ज्येष्ठ भ्राता के कहने से रहे लेकिन उन्होंने संसार की तमाम प्रवृत्तियों का त्याग कर दिया था। केवल वेश से संसारी ये बाकी मन से तो संयमी हो। एक वर्ष का समय व्यतीत होने के पश्चात् कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष के छट्वे दिन प्रभु ने महाभिनिष्क्रमण अनंत तीर्थंकर परमात्मा, गणधर भगवंतों द्वारा बताये ऐसे महान संय अंगीकार किया। प्रभु की दीक्षा में स्वयं इंद्र परमात्मा प्रभु के केश-कलाप को ग्रहण करते और उदासीन मन से समस्त क्षत्रिय कुंडवासियों ने अपने लाडले को विदाय दी। बस ऐसे महान संयमधर्म की आराधना से हम भी शीघ्र परमात्मा बने यही परमात्मा से प्रार्थना।