
अहमदाबाद। अनंत तीर्थंकरों द्वारा, गणधर भगवंतों द्वारा अपनाया हुआ यह महान संयम धर्म प्रभु वीर ने भी अंगीकार किया। सृष्टि के समस्त जीवों को अभयदान देने वाला, आत्मा को विशुद्ध बनाने वाला यह महान संयम धर्म परमात्मा ने स्वीकारा। संयम यात्रा में प्रभु को अनेक प्रकार के उपसर्ग आदि हुए उसमें प्रभु क्षमा भाव, समता भाव में रमण करते रहे।
सुविशुद्ध संयमी, प्रभावक प्रवचनकार, गीतार्थ गच्छाधिपति पं.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि प्रभु वीर के जन्म कल्याणक में लाखों-करोड़ों की संख्या में देव-देवी उपस्थित हुए। पृथ्वीलोक में भी समस्त जीवों को आनंद की अनुभूति हुई, लेकिन जब प्रभु संयम अंगीकार करने निकले तो वे अकेले ही थे। किंतु प्रभु किसी के लिए रुके नहीं, पंचमुष्टि लोच, आभूषण-वस्त्रादि अलंकारों का त्याग कर यावत् जीव तक सामायिक का पच्चक्खाण कर अपने त्याग मार्ग पर आगे बढ़ते है। प्रभु को संयम यात्रा के प्रारंभ से ही उपसर्गों की हारमालाओं का प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम चातुर्मास करने हेतु प्रभु अपने संसारी पिता के मित्र के यहां रहे। प्रभु तो कायोत्सर्ग ध्यान में स्थित थे। वर्षाकाल दरम्यान उस झोपड़ी को वहां के बैल-गाय आदि ने नष्ट कर दिया। यह देखकर सिद्धार्थ राजा के मित्र के प्रभु से कहा कि राजपुत्र होकर एक झोपड़ी भी संभाल नहीं पाये, अरे। पक्षी भी अपने घोंसले संभालते हैं, रक्षण करते हैं। तुम तो इतने लापरवाह हो प्रभु को लगा कि इसका अप्रीति उत्पन्न हो रही है। अत: यहां से चले जाने में ही हित है। पूज्यश्री फरमाते हैं कि इस प्रकार जघन्य, मध्यम, उत्कृष्ट उपसर्ग प्रभु को हुए इंद्र सभा में प्रभु की प्रशंसा प्रभु के समता, क्षमा की प्रशंसा सुनकर संगम देव प्रभु को ध्यान से चलित करने आये। अनेक प्रकार के बिछु, सर्प, कीड़ी, मकोडी, चूहे आदि विकुर्वणा की जिनके प्रहार से प्रभु का संपूर्ण शरीर छल्ली-छल्ली हो गया। इससे भी प्रभु चलित ना हुए तो उसने देवी अप्सरा आदि की विकुर्वणा की, प्रतिकूल उपसर्ग में प्रभु स्थिर रहे तो संगम देव ने अनुकूल उपसर्ग करने प्रारंभ किए लेकिन यह तो तीन लोक के ना। अनंत करुणा के सागर प्रभु है इनको ध्यान से चलित कर पाना कठिन है। अंत में थककर संगम देव ने कालचक्र से प्रभु पे प्रहार किया जिससे प्रभु नासिका के भाग तक जमीन के अंदर चले गए। लेकिन प्रभु कायोत्सर्ग ध्यान में स्थिर रहे, निश्चल रहे। यह देखकर संयम देव स्वयं को द्वारा हुआ मानकर छ: छ: महिनों तक उपसर्ग करके देवलोक लौट रहे थे तब शास्त्रकार भगवंत कहते है कि प्रभु के आंखों में से दो बूंद आंसू गिरे। प्रभु को इस बात का दु:ख था कि छ: छ: महीनों तक यह जीवन मेरे साथ रहकर भी धर्म की नहीं प्राप्त कर पाया।
इस प्रकार अनेक उपसर्गों को खूब समता सब से सहन करते करते ऋजुबालिका नदी के तट पे गोधूलिका आसन में प्रभु को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई। सर्वज्ञ प्रभु वीर राजगृही नगरी से अपापापुरी पधारे तब अनेक देवता गण भी वहां पधारे। इंद्रभूति आदि ब्राम्हण अपने यज्ञ स्थल को लांघकर जो रहे देवताओं को देखकर सोचने लगते है कि ये देवता हमारा यज्ञ छोड़ कहां जा रहे है? कौन है जो हमसे भी अधिक शक्तिशाली है? तब पता चला कि ये देवता तो प्रभु वीर के समवसरण में प्रभु की देशना सुनने जा रहे हैं। इंद्रभूति आदि ब्राम्हण जो स्वयं को सर्वज्ञ कहते थे किंतु मन में तो अनेक प्रकार के शंका को लेकर प्रभु के दर्शन करने गए। इंद्रभूति ने मनोगन निश्चय कर लिया ता कि प्रभु को निरूत्तर करके आना है। ऐसे भाव से, अभिमान से प्रभु दर्शन करने आये लेकिन प्रथम दर्शन से ही मानो इंद्रभूति प्रभु कर मोहित बने, प्रभु के मधुर संबोधन से ही अंतर का अभियान चकनाचूर हो गया। फिर जब प्रभु ने उनके मन के संशय को पूछे बिना ही उसका उत्तर देने लगे तब इंद्रभूति ने निश्चय किया कि शिष्य तो प्रभु के ही बनना है इस प्रकार पांच सौ ब्राम्हण सहित प्रभु के पास संयम अंगीकार कर गणधर पदवी को प्राप्त किया। इस प्रकार कल्पसूत्र में श्री वीर प्रभु के जीवन चरित्र समाप्त होकर, शेष तेईस तीर्थंकर परमात्माओं के जी चारित्र पश्चानुक्रम से अर्थात् पाश्र्वनाथ प्रभु से आदिनाथ प्रभु के जीवन की झांखियों का वर्णन आता है। बस ऐसे महान तीर्थंकर आत्माओं के जीवन चरित्र सुनकर हमारे जीवन में भी परिवर्तन आये और महान बने यही मंगल भावना। पूज्यश्री के पर्युषण पर्व के प्रवचन फेसबुक, युहयुब आदि पर लाइव प्रसारित किया जा रहा है। उत्सुक आराधक, भाविकगण इसका लाभ ले सकते हंै।