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अहमदाबाद। पर्वाधिराज पर्यूषण के अंतिम दिन की पुण्यमणी प्रभात क्षमा, नम्रता, प्रेम, स्नेह आदि का महान संदेश लेकर आई। शांत-प्रशांत वातावरण भी मानो क्षमा भाव में आगे बढऩे के लिए प्रेरित कर रहा हो। संवत्सरी महापर्व पर्वाधिराज का मुख्य दिन।
अहमदाबाद प्रेरणा तीर्थ चातुर्मासार्थे बिराजित, प्रकृष्ट पुण्य के स्वामी, प्रभावक प्रवचनकार, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ. देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. फरमाते हैं कि शाश्वती अट्ठाई से भी अधिक पर्वाधिराज पर्यूषण को बड़े ठाठ-माठ से इसलिए मनाया जाता है क्योंकि ये पर्व क्षमा का संदेश लेकर आता है। सर्वत्र मैत्री मैत्री का शंखनाद करता है। जैसे दीवाली पर्व के निर्मित गृह शुद्धि का कार्य सहज हो ही जाता है, वैसे संवत्सरी पर्व के निमित्त से आत्म शुद्धि के भाव भी सहज जागृत हो ही जाते है। संपूर्ण वर्ष दौरान या वर्षों से जिन जिन महानुभावों के नाजूक कोमल ह्रदय को जानते अजानते ठेस पहुंचाया हो, दु:खी किया हो, अशाता-असमाधि का कारण बने हो तथा जो भी छोटे-मोटे अपराध हुए हो जन सभी के लिए क्षमायाचना करना है।
यह महान पत्र इतना शक्तिशाली है कि वर्षों से बिगड़े हुए रिश्तों को एक ही क्षण में फिर से जोड़ दे। टूटे हुए दिलों को पुन: मैत्री के तार से जोड़ दे। ऐसे महान पर्व का आलंबन लेकर सब पुण्यशाली आत्माएं अपनी आत्म शुद्धि करते है। पूज्यश्री उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाते है कि जगत में आज तक कोई इंसान किसी को दु:खी करके आनंद से चैन से रह नहीं पाता। भले ही उसे 
थोड़ी क्षणों तक आनंद की अनुभूति हुई हो ऐसा लगे लेकिन उसका अंतर तो उसे डंखता ही है। वह व्यक्ति अपने मिथ्या अभियान के कारण शायद शब्दों द्वारा अपने दु:ख को व्यक्त नहीं करता लेकिन उसका अंतर्मन तो इसका साक्षी ही होता है। 
क्षमा भाव में अभिवृद्धि करने के लिए सहनशक्ति तथा गुणदृष्टि रूपी दो परिबल अत्यंत अनिवार्य होते है। किसी की भूल को माफ करने के लिए ह्रदय की विशालता चाहिए और किसी से माफी मांगने में नम्रता की आवश्यकता होती है। क्रोध के निमित्तों को निष्फल बनाना और समभाव में रहकर क्षमा धर्म की महान आराधना-साधना करना है। पूज्यश्री फरमाते है कि जीव मात्र के लिए अरूचि नहीं होनी चाहिए। तीन लोक के नाथ द्वारा स्थापित, चौदह राजलोक में सर्वश्रेष्ट लोकोत्तर शासन मिला तो शास्त्रकार भगवंत कहते है। कि क्रोध के निमित्त मिलने पर क्रोध करना ये लोकोत्तर शासन के अनुयायियों का कत्र्तव्य नहीं कर समता से क्षमा भाव में वृद्धि करना ही लोकोत्तर शासन के अनुयायियों का कत्र्तव्य है। किसी चिंतक ने खूब कहा है कि मनुष्य को मन में एक मंदिर और कब्रिस्तान दोनों रखना चाहिए। मंदिर में अपने परिवार स्वजन मित्र आदि के गुणों को सेव करना और कबिस्तान में उन सभी के दोषों को दफना देना। ऐसा करने से आपके अंदर गुण दृष्टि खिलेगी और यथार्थ रुप से संवत्सरी पर्व की अनुपम आराधना कर पाओगे। मानव मात्र से भूल होती है और जब तक सही समझ नहीं आयेगी तब तक सभी से गलतियां होती ही रहेगी। ऐसी परिस्थिति में कर्म सिद्धांत को करके भाव करुणा की भावना करते करते प्रार्थना करना कि हे। परमात्मा शीघ्र इसे कर्मों के दोष से मुक्त कीजिये। इस प्रकार मैत्री के संतु से सबको बांधे रखने से मन में जीवन में प्रसन्नता-आनंद की लहर छा जायेगी। 
सृष्टि के समस्त जीवों को क्षमा कर आत्म शुद्धि द्वारा इस पर्व को यथार्थ रूप से मनाएं। अनेक बालक-बालिकाओं ने विविध तपश्चर्या से आत्म शुद्धि कर इस महान पर्व को यथाशक्ति से यथार्थ किया उन सभी की भूरी-भूरी अनुमोदन। बस क्षमा का शुभ संदेश लेकर संपूर्ण जीवन को उत्कृष्ट भावों से नंदनवन बनाकर शीघ्र परम पद की प्राप्ति करें।