Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल
भारत में गणेश जी के अनेक मंदिर न केवल प्रसिद्ध हैं वरण उनके प्रति प्रगाढ़ आस्था, श्रद्धा और विश्वास का भी प्रतीक हैं। कोई घर, गली, मोहल्ला, भवन, शहर ऐसा नहीं जहाँ गणेश जी विराजित न हों। उनका पूजन न होता हो।
प्रथम पूज्य शिव और पार्वती के पुत्र, गणों के स्वामी, गज जैसा सिर, मूषक सवारी, केतु के देवता, चारों दिशाओं में सर्वव्यापकता के प्रतीक उनकी चार भुजाएं, महाबुद्धित्व का प्रतीक लंबी सूंड, विघ्न हरण मंगल करण एवं 108 नामों से पुकारे जाने वाले गणपति अर्थात गणेश भगवान का पूजन विश्वव्यापी हैं। भारत में ही नहीं वरण दुनिया के अनेक देशों में पूजे जाते हैं विनायक।
भारत में गणेश जी के अनेक मंदिर न केवल प्रसिद्ध हैं वरण उनके प्रति प्रगाढ़ आस्था, श्रद्धा और विश्वास का भी प्रतीक हैं। कोई घर, गली, मोहल्ला, भवन, शहर ऐसा नहीं जहाँ गणेश जी विराजित न हों। उनका पूजन न होता हो। सृष्टि और संस्कृति में आदि काल से सर्व प्रथम पूजे जाते हैं। गणपति के आस्था धामों पर मेले जुड़ते हैं, भव्य शोभा यात्राएं आयोजित की जारी है। गणेश चतुर्थी पर इनकी स्थापना एवं अनन्त चतुर्थी को विसर्जन शुभ फलदायक माना जाता है। मुम्बई के गणेश उत्सव की शान दुनिया भर में हैं।तिब्बत में गणेश जी को दुष्टात्माओं के दुष्प्रभाव से रक्षा करने वाले देवता के रूप में पूजा जाता हैं। नेपाल में सर्वप्रथम सम्राट अशोक की पुत्री चरुमित्रा ने गणेश मंदिर की स्थापना की थी एवं उन्हें सिद्धिदाता के रूप में मन था। मिश्र में ईसा से 236 पूर्व के कई मंदिर थे और उन्हें कृषि रक्षक देवता के रूप में पूजा जाता था। 
अमेरिका के फ्लोरिडा, एरिजोना के फीनिक्स शहर, ऊटाह की साल्टलेक सिटी, केलिफोर्निया के सेंट जोज शहर में, कनाडा के टोरेंटो, ब्रेंम्पटन, एडमांटन शहर में, मलेशिया के कोट्टुमलाई, जलान पूड्डु लामा, इपोह शहरों में एवं नॉर्वे, फ्रांस, जर्मनी, दक्षिण अफ्रीका, श्रीलंका, आस्ट्रेलिया, कम्बोडिया, एवं सिंगापुर आदि कई देशों में गणपति के मंदिर हैं। इन देशों में श्रद्धालु अपनी-अपनी मान्यताओं और अपने-अपने विश्वास के साथ  विधि पूर्वक उनका पूजन करते हैं। इन देशों में गणेश जी को अमूमन गणेश, गणपति, विनायक एवं सिद्धि विनायक पुकारा जाता हैं और इन्हीं नामों पर मंदिर बने हैं। जनमानस में व्यापकता गणपति के प्रति समाज के जनमानस में आस्था और विश्वास की व्यापकता का भान इसी से लगाया जा सकता है कि इन्हें 108 नामों से पुकारा जाता हैं ।  जनमानस में इनके प्रचलित रूपों में बालगणपति, भालचन्द्र, बुद्धिनाथ, धूम्रवर्ण, एकाक्षर, एकदंत, गजकर्ण, गजानन, गजनान, गजवक्र, गजवक्त्र, गणाध्यक्ष, गणपति, गौरीसुत, लंबकर्ण, लंबोदर, महाबल, महागणपति, महेश्वर, मंगलमूर्ति, मूषकवाहन, निदीश्वरम, प्रथमेश्व, शूपकर्ण, शुभ, सिद्धिदाता, सिद्धिविनायक, सुरेश्वरम, वक्रतुंड, अखूरथ, अलंपत, अमित, अनंतचिद, विनायक, सिद्धि विनायक, विध्न हरण, मंगलकरण आदि रूपों में पूजा जाता हैं। 
भगवान शिव को भी एक दिन इस कारण करना पड़ी थी गणेशजी की पूजा 
ऐसे कई अवसार आए जब भगवान विष्णु और शिवजी मुसीबत में फंस गए थे। तब उन्हें भी प्रथम पूज्य गणेशजी की पूजा करना पड़ी थी। आओ जानते हैं इस रोचक प्रसंग को जब भगवान शिव को भी एक दिन इस कारण करना पड़ी थी गणेशजी की पूजा।
दरअसल, असुर बलि की कृपा प्राप्त करके त्रिपुरासुर भयंकर असुर बन गया था। भगवान कार्तिकेय द्वारा तारकासुर का वध करने के बाद उसके तीनों पुत्रों ने देवताओं से बदला लेने का प्रण कर लिया। तीनों पुत्र तपस्या करने के लिए जंगल में चले गए और हजारों वर्ष तक अत्यंत दुष्कर तप करके ब्रह्माजी को प्रसन्न किया। तीनों ने ब्रह्माजी से अमरता का वरदान मांगा। ब्रह्माजी ने उन्हें मना कर दिया और कहने लगे कि कोई ऐसी शर्त रख लो, जो अत्यंत कठिन हो। उस शर्त के पूरा होने पर ही तुम्हारी मृत्यु हो।
तीनों ने खूब विचार कर, ब्रह्माजी से वरदान मांगा- हे प्रभु! आप हमारे लिए तीन पुरियों का निर्माण कर दें और वे तीनों पुरियां जब अभिजित् नक्षत्र में एक पंक्ति में खड़ी हों और कोई क्रोधजित् अत्यंत शांत अवस्था में असंभव रथ और असंभव बाण का सहारा लेकर हमें मारना चाहे, तब हमारी मृत्यु हो। ब्रह्माजी ने कहा- तथास्तु!
शर्त के अनुसार उन्हें तीन पुरियां (नगर) प्रदान की गईं। तारकाक्ष के लिए स्वर्णपुरी, कमलाक्ष के लिए रजतपुरी और विद्युन्माली के लिए लौहपुरी का निर्माण विश्वकर्मा ने कर दिया। इन तीनों असुरों को ही त्रिपुरासुर कहा जाता था। न तीनों भाइयों ने इन पुरियों में रहते हुए सातों लोको को आतंकित कर दिया। वे जहां भी जाते समस्त सत्पुरुषों को सताते रहते। यहां तक कि उन्होंने देवताओं को भी, उनके लोकों से बाहर निकाल दिया।
किसी में भी त्रिपुरासुर का वध करने की शक्ति नहीं थी तब भगवना शिव ने यह जिम्मा उठाया। सभी देवताओं ने शिव को अपना-अपना आधा बल समर्पित कर दिया। अब उनके लिए रथ और धनुष बाण की तैयारी होने लगी जिससे रणस्थल पर पहुंचकर तीनों असुरों का संहार किया जा सके। पृथ्वी को ही भगवान् ने रथ बनाया, सूर्य और चन्द्रमा पहिए बन गए, सृष्टा सारथी बने, विष्णु बाण, मेरूपर्वत धनुष और वासुकी बने उस धनुष की डोर। इस प्रकार असंभव रथ तैयार हुआ और संहार की सारी लीला रची गई। जिस समय भगवान् उस रथ पर सवार हुए, तब सकल देवताओं के द्वारा सम्हाला हुआ वह रथ भी डगमगाने लगा। तभी विष्णु भगवान् वृषभ बनकर उस रथ में जा जुड़े। उन घोड़ों और वृषभ की पीठ पर सवार होकर महादेव ने उस असुर नगर को देखा और पाशुपत अस्त्र का संधान कर, तीनों पुरों को एकत्र होने का संकल्प करने लगे।
परंतु भगवान शिव हर तरह के प्रयास करने के बाद भी उन असुरों का वध करने में असफल रहे तो नारदजी ने कहा कि आप गणेशजी की अर्चना किए बगैर त्रिपुरासुर से युद्ध करने चले गए थे। इसीलिए आप अपने युद्ध में सफल नहीं हो पा रहे हैं। इसके बाद शिवजी ने अपने पुत्र गणेशजी का पूजन करके उन्हें लड्डुओं का भोग लगाया और दोबारा त्रिपुरासुर पर आक्रमण किया। इसके बाद ही वे लक्ष्य भेदने में सफल हुए। उस अमोघ बाण में विष्णु, वायु, अग्नि और यम चारों ही समाहित थे। अभिजित् नक्षत्र में, उन तीनों पुरियों के एकत्रित होते ही भगवान शंकर ने अपने बाण से पुरियों को जलाकर भस्म कर दिया और तब से ही भगवान शंकर त्रिपुरांतक बन गए। त्रिपुरासुर को जलाकर भस्म करने के बाद भोले रुद्र का हृदय द्रवित हो उठा और उनकी आंख से आंसू टपक गए। आंसू जहां गिरे वहां 'रुद्राक्षÓ का वृक्ष उग आया। 'रुद्रÓ का अर्थ शिव और 'अक्षÓ का आंख अथवा आत्मा है।