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अहमदाबाद। इस विश्व में अनेक प्रकार के ग्रंथ विद्यमान है। कोई जीवन निर्माण के उद्देश्य से लिखे गए हैं तो कोई आदर्शों के आलंबन के उद्देश्य से लिखे हैं। प्रत्येक ग्रंथ स्वयं में एक विशिष्ट महत्ता को धारण करता है। भारतीय संस्कृति ग्रंथों की विविधता के लिए प्रसिद्ध है। उसमें भी जैन धर्म तो विविध ग्रंथों के लिए प्रसिद्ध है। इन विविध ग्रंथों में एक ग्रंथ सोलह प्रकार की भावनाओं के उद्देश्य से महोपाध्याय श्री विनयविजयजी महाराज ने रचना की।
विविध छंदों में बना ये ग्रंथ गायन करने में भी अति आनंदायक लगता है। शांत सुधारस ग्रंथ पे अपनी प्रवचन धारा आगे बढ़ाते हुए प्रभावक प्रवचनकार, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. फरमाते हैं कि कोई भी अनुष्टठान जो मैत्र्यादि सोलह भावना से युक्त हो वही धर्म अनुष्ठान कहलाता है। शास्त्रकार भगवंत कहते है कि इन सोलह में से यदि कोई एक भावना भी बराबर ह्रदय में अंकित हो जाये तो काम हो जाये। सोलह भावना इस प्रकार से है:- अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आश्रव, संवर, निर्जरा, धर्मप्रभाव, लोकस्वरूप, बोधिदुर्लभ, मैत्री, प्रमोद,करुणा, 10 माध्यस्थ्य।
पू्ज्यश्री फरमाते हैं कि इस महान ग्रंथ के वांचन श्रवण से अनेक शोक संतप्त तथा शोक व्याकुल जीवों को, मनुष्यों को शांति, समता, समाधि तथा प्रसन्नता की प्राप्ति होती है। शांतसुधारस ग्रंथ की एक ही बात है कि दुनिया में शांति माप में है और अशांति अमाप है। अत: उस अमाप अशांति से शांति में आने के लिए  इस महानग्रंथ का सहारा लेना अत्यंत आवश्यक है। शास्त्रकार भगवंत तो कहते है कि यदि हम शांत हो जायेगें तो दुनिया के किसी भी परिबल में ताकात नहीं है कि वो हमें अशांति में रख पाये, अस्वस्थ कर सकें। पूज्यश्री शांतसुधारस का अमृतपान कराते हुए फरमाते है कि भीतर में रही अशांति को, समाधि को, अस्वस्थता को शांति, समाधि, स्वस्थता तथा प्रसन्नता में परिवर्तित करने की कला आनी चाहिए। अशांति उत्पन्न होने का कारण अज्ञानता, प्रेस्टिज इशु जैसे बारिश का आगमन बादलों के आने से निश्चित होता है वैसे अज्ञानता के आगमन से अशांति निश्चित ही होती है। इतिहास में हुए एक महान विचित्र घटना पे नजर करते है:- रावण ने सती सीता का अपहरण किया। सिर्फ यह सोचकर कि मेरे जैसे सुखी-संपन्न-समृद्ध राजा के अंत:पुर को शोभायमान करने वाली यह स्त्री जंगल में भटकते राम के योग्य नहीं है। बस इससे उसके भीतर में अशांति का प्रवाह बहने लगा और उसके कारण इतना बड़ा अपकृत्य हो गया। प्रेस्टिज लेवल को देखने गये और वहीं उनके जीवन का राज्य का सर्वनाश का कारण बना। खुद भी जीवन खो बैठे और अनेक निर्दोष सैनिक भी अपने जीवन खो बैठे।
पूज्यश्री फरमाते है कि यह महान ग्रंथ हमें एक अमूल्य उपहार के रूप में मिली है। जिसके सहारे हम जीवन की प्रत्येक पर्ििस्थति अनुसार मन: स्थिति को बदल सकते है। जीन में आत्मा में, मन में शांति, प्रसन्नता का एहसास कर सकते है। शास्त्रकार भगवंतों ने प्रतिदिन के आवश्यक क्रिया में श्रावकों को सर्व जीवों को क्षमादान तथा सर्व जीवों से क्षमायाचना करने का निर्देश किया है। उसके बाद प्रत्येक जीवन, प्राणी, आत्मा के साथ मैत्री का मधुर बंधन बांधने का शुभ मार्गदर्शन दिया है। क्षमा भाव में आगे बढ़ते-बढ़ते साथ में मंत्री भाव के पवित्र स्त्रोत में भी आगे बढऩा है। ऐसे ही सोचना है कि जगत के समस्त जीवन मेरे मित्र ही है। प्रत्येक आत्मा के साथ मैत्री पूर्ण व्यवहार करें, जिससे परमात्मा के सवि जीव करूं शासन रसी की परस मंगलमयी भावना के कुछ अंश हमारे में भी आये और हम भी उनकी तरह शीघ्र अरिहंत बनें।