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अहमदाबाद। परम मंगलमयी शांति और सुधारस का कॉम्बीनेशन यानी विनयविजयजी महाराजा द्वारा रचित शांत सुधारस ग्रंथ। यह ऐसे महान शब्दों का संकलन है, महान विचारों को प्रदर्शित करता और अद्भुत भावनाओं से पर्याप्त ऐसा महान गेय ग्रंथ है। इस ग्रंथ के वांचन से जीवन महा शांत सुधारस बन सकता है।
भावनाओं पर लिखे इस महान गेयात्मक ग्रंथ का विवेचन करते हुए मौलिक चिंतक, आशु कवि, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. फरमाते हैं कि कुछ प्रकार के विचारों को भावना कहा गया है। ऐसा इसलिए क्योंकि वह यूनिवर्सल ट्रूथ है अर्थात् कोई भी काल में ये परिवर्तित नहीं होते। जैसे सूर्योदय पूर्व दिशा में और अस्त पश्चिम में होता है, इस सच को कोई बदल नहीं सकता वैसे ही कुछ भावनाओं को लेकर भी है। ऐसी भावनाओं से जीवन संपर्ण विश्वमय बन जाता है। पूज्यश्री फरमाते हैं कि कुछ विचार कषायों के कारण आते हैं तो कुछ कर्मों की मंदता तथा कर्मों के क्षयोपशम से आते हैं। अत: इन्हें भावना कहा जाता है। जैसे भूतकाल में भी एक और एक मिलकर दो होते थे। वर्तमान में भी दो होते है और भविष्य में भी दो ही होंगे। वैसा ही कुछ भावनाओं को लेकर भी है।
सर्वप्रथम मैत्री भावना को स्पर्श करना है। मैत्री यानी मित्रता, सर्व जीवों के प्रति मैत्री भावना रखना। मित्रता को बनाये रखने, मैत्री के संबंध को टिकाये रखने के लिए कोई को लेकर सकता है वो इस छोटी सी कथानक से जानने का आनंद लेते हैं। दो मित्र थे। दोनों ही इतने होशियार की ना पूछो बात। दोनों को ग्रंथ लिखने की भावना हुई। थोड़े समय बाद दोनों मिले। एक दोस्त ने दूसरे से कहा कि दौस्त मैं ने जो ग्रंथ लिखा है वो मैं मेरे साथ बैठकर पढऩा चाहता हूं। यदि मुझे ठीक लगे तो हम गंगा नदी के किनारे या फिर गंगा नदी की सेहर करते-करते उसे पढ़े? दूसरे मित्र ने भी बड़ी ही उत्सुकता से स्वीकार किया और दोनों गंगा नदी पे ग्रंथ पढऩे गये। ग्रंथ पढ़कर दूसरे मित्र के चेहते पे आनंद की रेखा के बदले अफसोस की रेखाएं दिखने लगी। खुद के मित्र को मायूस होता देख उसने पूछा कि दोस्त क्या हुआ?  
 मुझसे लिखने में कोई भूल हुई है? दूसरे मित्र ने कहा कि नहीं दोस्त ऐसा नहीं है। मैंने भी इसी विषय पर ग्रंथ लिखा है। लेकिन तेरी लेखन शैली मुझसे अधिक अच्छी है। यदि तेरा ग्रंथ कोई पढ़ेगा तो मेरा ग्रंथ पढऩे की किसी को इच्छा ही नहीं होगी। बस इतनी सी बात? दोस्त मेरा ग्रंथ तलेटी के समान है और तेरा शिखर की लहराती ध्वजाओं के समान है। लोग हमारी कोम्बिनेशन करेंगे। इतना सुनते ही उस मित्र ने अपनी प्रबल मेहनत से लिखे गए महान ग्रंथ को नदी में फैंक दिया। क्योंकि वह यह बात भलि भांति जानता था कि मैत्री में अंतराय करने वाले दो मुख्य परिबल है। ईष्र्या, क्रोध।
मित्र ने कहा कि अरे ये तुमने क्या किया? उसने जवाब दिया कि अपनी मित्रता को आंच आये ऐसा कोई भी तत्व या परिबल मुझे मंजूर नहीं है। मेरे मित्र के आनंद को, प्रसन्नता को छीनने वाली खुशी या उपलब्धि मेरे किस काम की? अत: मेरे मित्र के दु:ख को उठाकर पानी में फैंक दिया। दोनों की आंखें अश्रुओं से भर गई और ह्रदय मैत्री से भूर गया। पूज्यश्री फरमाते है कि जगत के समस्त जीवों के साथ, मनुष्य भव में मिले प्रत्येक व्यक्ति के साथ मैत्री का पवित्र सेतु बांधना है। कहते हैं पति पत्नी को, गुरू शिष्य को, विद्यार्थी अध्यापक को परस्पर एक दूसरे के साथ मित्र बनकर जीना चाहिए अर्थात् क्रोध, ईष्र्या को दूर करके रहना चाहिए। इस प्रकार आत्मा का कल्याण कर शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें यही मंगल भावना।