
अहमदाबाद। कुछ संबंध ऐसे होते हैं जो पहले से बने हुए हैं। माता-पिता-भाई-बहन-स्वजन आदि समस्त परिवार प्रभु से मिला एक उपहार है। इन सबके साथ प्रभु ने हमें मित्र बनाने का मौका दिया। उसमें किसी प्रकार का बंधन या मर्यादा नहीं रकी। माता-पिता तो पहले से मिले होते हैं। विवाह करने के लिए तो समान कुल-वय-सोच आदि देखा जाता है जबकि मित्र बनाते समय ऐसी कोई भी सोच नहीं आती। मनुष्य को यदि मनुष्य से मित्रता करनी हो तो भी छूट, पशुओं से मित्रता करनी हो तो भी छूट, पक्षियों से मित्रता करनी हो तो भी छूट।
अनेक प्राचीन तीर्थोद्धारक, प्रशांतमूर्ति, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव. राजयश सू.म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि शांत सुधारस ग्रंथ महामंगलकारी, महानंदकारी तथा वैराग्य रस से भरपूर ग्रंथ है। जब इसकी भावनायें अपने में आये तब लगता है कि व्यर्थ ही विश्व के पुद्गलों में तथा पदार्थों में खोये हुए है। शांतसुधारस ग्रंथ में सोलह भावनायें बताई है उनमें से मैत्री भावना को प्रधानता प्रदान की गई है। कोई ऐसा कहते है कि हम नर्सरी से ही साथ में पढ़ते थे, कोई कहते है स्कूल से साथ में है, कालेज-बिजनेस सब साथ में किया लेकिन शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि इन सबसे बढ़कर आत्मा ही अपना मित्र है। शास्त्रों में कहा है आत्मेव आत्मन: बंधु अर्थात् आत्मा ही आत्मा का मित्र है, बंधु है, शत्रु है।
जिज्ञासु श्रोताओं ने पूज्यश्री को पूछा आत्मा के साथ कैसे मित्रता करनी? पूज्यश्री फरमाते है कि अध्यात्म की दिशा मिलती है तो पता चलता है कि आत्मा दो विभाग में बंट गए है एक आत्मा जो विषयों में, इंद्रियों में फंस गया हो, एक आत्मा जो अध्यात्म की तरफ आगे बढऩे के लिए तत्पर है केवल हाथ ही बढ़ाना है। आत्मा ही आत्मा का बंधु है-मित्र है यह बात यदि समझ आ जाये तो आत्मोन्मुख मोक्षोन्मुख-संस्कारोन्मुख हुई आत्मा के साथ अवश्य मैत्री बंध जाती। पूज्यश्री तो कहते है एक बार ऐसी आत्मा के साथ मैत्री हो जाये तो यह ज्ञात हो ही जायेगा कि मेरी आत्मा अकेली नहीं है।
कीड़ी हो, मकोड़ी हो, पुष्प हो, वृक्ष हो, पक्षी हो या कोई जानवर सब में आत्मा है। बड़े से बड़ा हाथी हो या हजारो पत्तेवाला वृक्ष हो सब में आत्मा होती है और सबके साथ मित्रता करनी चाहिए। अमेरिका जैसे विदेश में एक पंजाबी को कोई एक गुजराती भाई मिला तो भी आनंद आनंद हो गया। क्योंकि जहां कोई अपना नहीं दिखता वहां अपने ही राष्ट्र का कोई व्यक्ति मिला तोउसका आनंद तो होगा ही ना। कहीं पे अपना कोई देशवासी-गांववासी मिले तो अपार आनंद होता है। ऐसा ही आनंद निजानंदी आत्माओं को स्वयं की आत्माओं से मिलने पर होता है। उस सीमा तक ना पहुंचे सको तो कुछ नहीं लेकिन इतना तो संकल्प अवश्य करना चाहिए कि अपने कारण किसी भी जीवन को लेश मात्र भी दु:ख ना हो। जगत् के सर्वशक्तिसाली महापुरूष परमात्मा को प्रार्थना करना कि संसार में जीने के लिए अनेक निर्दोष आत्माओं का इस्तमाल करना पड़ रहा है बस उनकी हिंसा ना करना पड़े ऐसी परम कृपा कीजिये। पूज्यश्री फरमाते है कि अपने जैन शास्त्रों में इरियावहियं सूत्र वो मैत्री का परम सूत्र है। जिन जिन जीवों की हिंसा हुई हो उन सभी को नजर के समक्ष लाकर उनसे मैत्री का संबंध बांधना। कहीं भी आते-जाते मार्ग में जिन भी जीवों की हिंसा हुई हो उन सभी को मिच्छामि दुक्कडम् देना है। जगत् के सर्व जीवों से मैत्री करना है। अर्थात् उनके सर्व अपराधों को क्षमा करना, क्षमा मांगना और शांत सुधारस का अमृत पान करना है।