अहमदाबाद। मूर्छित व्यक्ति को बैठा दें ऐसी जादुई जड़ी-बुटी यानी संजावीनी जैसा कुछ अस्तित्व में ही नहीं है। वास्तविकता में जब व्यक्ति की हार गया हो, हताश हो गया हो, निराश हो गया हो तब जो उसे जीवन जीने की शक्ति देता है, आत्मविश्वास बढ़ाता हो उत्साह बढ़ाता हो ऐसी प्रत्येक चीज, व्यक्ति, कोई शब्द, कविता कथा आदि संजीवनी ही कहलाती है। ऐसी ही संजीवनी स्वरूप, अनेक पूर्वाचायों द्वारा रचित ग्रंथ भी है।
मौलिक चिंतक, प्रभावक प्रवचनकार, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि शांत सुधारस ग्रंथ भी एक संजीवनी स्वरूप ही है। आधि-व्याधि-उपाधि से जो शांति दे, समाधि दे वह कोई और नहीं बल्कि शांतसुधारस ग्रंथ ही है। इस ग्रंथ की प्रत्येक बात, प्रत्येक भावना शांति-शाता-समाधि ही देती है। पूज्यश्री फरमाते हैं कि शांति यानी समाधि और समाधि यानी परस शांति-शात-समाधि प्राप्त करनी हो तो समता होनी ही चाहिए। रोग तो होंगे लेकिन समता से समभाव से सहन करने से, जो जैसा है उसे वैसा स्वीकार लेने से स्वयं को भी शांति-शात-समाधि की प्राप्ति होती है और आसपास के लोगों को भी शांत रहती है।
आधि-व्याधि-उपाधि तो हमारे धैर्य की परीक्षा लेने आती है। इस परीक्षा में समता से ही उत्तीर्ण होकर प्रथम नवंबर ला सकते है। समता में रहने से, समभाव में रमण करने से हमारी सहनशक्ति भी बढ़ती है, और यदि किसी गंभीर चिंतन में आगे बढ़े तो आधि-व्याधि-उपाधि से गुजर रहे होते है तब एहसास होता है कि शरीर और आत्मा दोनों अलग है- भिन्न है। समता का एक अर्थ यह भी होता है कि प्रत्येक आत्मा को समान दृष्टि से देखना। कीड़ी में जो आत्मा है, मनुष्य में जो आत्मा है, पशु-पक्षियों में, वनस्पतियों में, पृथ्वी के जीवों में, पानी में, अग्नि में इन तमान में जो आत्मा है वह एक ही है। केवल कर्मों के आवरण से, कर्मों के विपाक से इनका स्वरूप अर्थात् बाह्य आकार भिन्न-भिन्न है। आत्मा की दृष्टि से तो सब में समान ही आत्मा है।
पूज्यश्री फरमाते है कि हीरे की खान में से व्यापारी बड़े-बड़े हीरे ढूंढ निकालता है, किसी और की नजर इस प्रकार के रत्न को इतनी शीघ्रता से ढूंढ नहीं पाती। वैसे ही जगत के जीवों को देखने की दृृष्टि, नजरिया बदलना है। कोई भी प्राणी, कोई भी आत्मा किसी से हीन नहीं है। प्रत्येक आत्मा एक ही तुलना में आते है। पूज्यश्री कहते है कि प्रत्येक आत्मा को सिद्धात्मा के रूप में ही देखना। उनसे जुड़ जाये, मैत्री का पवित्र बंधन बांध लेने से सब समान ही प्रतीत होंगे। ऐसा नजरिया केवल विवेकपूर्ण मनुष्य को प्राप्त हुआ है। अत: अवश्य इस दृटि से प्रत्येक जीव, प्रत्येक आत्मा को देखने का प्रयत्न करें।
एक भाई को लॉटरी लगी तो उसके पड़ोसी गांववासी, देशवासी, उसके स्वजन सब कहने लगे कि जिनको लॉटरी लगी है हम उनके संबंधी है। उनके लॉटरी के सहभागी बनने की इच्छा हो जाती है तो पूज्यश्री फरमाते है कि प्रत्येक आत्मा में भी केवल ज्ञान रुपी महालक्ष्मी पड़ी है उसका सहभागी बनने का सौभाग्य प्राप्त हो तो काम हो जाये, मानव जीवन सार्थक हो जाये। अपने पास हो तो दूसरों को सहभागी बनाना और दूसरों के पास होतो उसके सहभागी हमें बनना है। यह तब ही संभव है जब परस्पर सबको मैत्री भावना हो। मैत्री के परम सेतु से सब एक दूसरे से जुड़ जायें और परम पद को शीघ्र हासिल करें यही कामना।
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