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अमीर और गरीब के बीच पहले से ही भारी असमानता रही है, लेकिन कोरोना ने इसे और बढ़ा दिया है. राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा किये गये अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण की हालिया रिपोर्ट के अनुसार अमीर और गरीब के बीच खाई गहरी होती जा रही है। यह तथ्य कोई नया नहीं है और न ही चौंकाता है। पहले भी अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में यह तथ्य उजागर होता रहा है कि विकास की गति तेज होने के साथ-साथ आर्थिक विषमता में भी बढ़ोतरी हुई है।
इस विस्तृत सर्वे में कई महत्वपूर्ण पहलू हैं, जिन पर विमर्श की जरूरत है। सर्वे के अनुसार देश के 10 प्रतिशत शहरी परिवारों के पास औसतन 1.5 करोड़ रुपए की संपत्ति है, जबकि निचले वर्ग के परिवारों के पास औसतन केवल 2,000 रुपये की संपत्ति है। ग्रामीण इलाकों में स्थिति शहरों की तुलना में थोड़ी बेहतर है। ग्रामीण इलाकों में शीर्ष 10 फीसदी परिवारों के पास औसतन 81.17 लाख रुपये की संपत्ति है, जबकि कमजोर तबके के पास औसतन केवल 41 हजार रुपये की संपत्ति है।
यह सर्वे जनवरी-दिसंबर, 2019 के दौरान किया गया था और इसका मुख्य उद्देश्य परिवारों की संपत्ति और देनदारियों से जुड़े बुनियादी तथ्य जुटाना था। इससे यह चौंकानेवाली बात सामने आयी कि खेती करनेवाले आधे से अधिक परिवार कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। सर्वे के अनुसार, 2019 में 50 फीसदी से अधिक किसान परिवारों पर कर्ज था।
उन पर प्रति परिवार औसतन 74,121 रुपये कर्ज था। इस कर्ज में केवल 69।6 फीसदी बैंक, सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों जैसे संस्थागत स्रोतों से लिया गया था, जबकि 20.5 फीसदी कर्ज सूदखोरों से लिया गया था। कुल कर्ज में से 57.5 फीसदी ऋण कृषि उद्देश्य से लिये गये थे। सर्वे के अनुसार फसल के दौरान प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय 10,218 रुपये थी। इसमें से मजदूरी से प्राप्त प्रति परिवार औसत आय 4,063 रुपये, फसल उत्पादन से 3,798 रुपये, पशुपालन से 1,582 रुपये, गैर-कृषि व्यवसाय से 641 रुपये और भूमि पट्टे से 134 रुपये की आय हुई थी। सर्वे से पता चलता है कि 83.5 फीसदी ग्रामीण परिवार के पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है, जबकि केवल 0.2 फीसदी के पास 10 हेक्टेयर से अधिक जमीन थी। यह सही है कि देश में धीरे धीरे ही सही, गरीबी घट रही है और विकास के अवसर बढ़े हैं, लेकिन आजादी के 75 साल बाद भी समाज में भारी असमानताएं हैं। बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं हों या शिक्षा के अवसर, अब भी ये अमीरों के पक्ष में हैं। गौर करें कि जब एक तरफ दुनिया कोरोना से जूझ रही थी, तो उस दौरान अरबपतियों की संख्या बढ़ रही थी। मशहूर पत्रिका फोर्ब्स का कहना है कि महामारी के बावजूद दुनिया के सबसे रईस लोगों के लिए यह साल बहुत अच्छा रहा है। इस दौरान उनकी दौलत में पांच खरब डॉलर की वृद्धि हुई है और नये अरबपतियों की संख्या भी बढ़ी है। 
फोर्ब्स की अरबपतियों की वैश्विक सूची में 2755 लोग शामिल किये गये हैं, जो पिछले साल की संख्या से 600 अधिक हैं। इनमें से 86 फीसदी लोगों ने महामारी के दौर में अपनी हैसियत को और बेहतर किया है।
सबसे ज्यादा 724 अरबपति अमेरिका में हैं। पिछले साल वहां यह संख्या 614 थी। दूसरे स्थान पर चीन है, जहां अरबपतियों की संख्या अब 698 हो गयी है, जो पिछले साल 456 थी। भारत तीसरा सबसे अधिक अरबपतियों वाला देश है। इस साल इनकी संख्या 140 हो गयी है, जो पिछले साल 102 थी। दूसरी ओर, दुनिया में गरीबों की संख्या में भारी बढ़त हुई है। विश्व बैंक का अनुमान है कि महामारी के दौरान दुनियाभर में 11।5 करोड़ लोग अत्यंत निर्धन की श्रेणी में पहुंच गये है। ये आंकड़े रेखांकित करते हैं कि दुनियाभर में आय व संपत्ति का वितरण पूरी तरह असंतुलित है।
कोरोना काल ने मजदूरों और उनकी कठिनाइयों को विमर्श के केंद्र में ला दिया है। इन मजदूरों के बिना कारोबार जगत का कामकाज कितना कठिन हो सकता है, इस विषय में उन्होंने पहले कभी सोचा ही नहीं है। यह बात भी साबित हो गयी कि अर्थव्यवस्था का पहिया कंप्यूटर से नहीं, बल्कि मेहनतकश मजदूरों से चलता है। यह भी स्पष्ट हो गया है कि बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के मजदूरों के बिना किसी राज्य का काम नहीं चल सकता है। ये मेहनतकश हैं और गुजरात, महाराष्ट्र, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली जैसे राज्यों की जो आभा और चमक दमक नजर आती है, उसमें प्रवासी मजदूरों का भारी योगदान है। विकसित माने जानेवाले राज्यों को यह बात समझ आ जानी चाहिए कि उनके विकास की कहानी बिना बिहार और झारखंड के मजदूरों के योगदान के नहीं लिखी जा सकती है। कॉरपोरेट जगत को इस पर गंभीरता से विचार करना चाहिए कि वे अपने कल-कारखाने बिहार, झारखंड जैसे राज्यों में लगायें, जहां हुनरमंद कामगारों की भरमार है। ये प्रवासी मजदूर मेहनतकश हैं और पूरी ताकत से खटते हैं। लेकिन इनको समुचित आदर, सुविधाएं और वेतन नहीं दिये जाते हैं। महानगरों में जाति गौण हो गयी है और उनकी जगह समाज विभिन्न वर्गों में विभाजित है।
उच्च वर्ग है, मध्य वर्ग है और कामगार हैं, जिन्हें निम्न वर्ग का माना जाता है। मुंबई में यह वर्ग धारावी में रहता है, तो दिल्ली एनसीआर में उसका डेरा खोड़ा जैसे अनेक स्थान हैं। इन बस्तियों में बुनियादी सुविधाओं का नितांत अभाव है। यहां बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा जिस राज्य का आप नाम लें, उसका गरीब तबका आपको मिल जायेगा। सबकी एक पहचान है कि वे सब मजदूर हैं। ये बस्तियां दाइयां, ड्राइवर, ऑटो चलानेवाले, बढ़ई, पुताई करनेवाले, डिब्बे वाले, चौकीदार और दिहाड़ी मजदूर उपलब्ध कराते हैं। ऐसा कहा जाता है कि अगर धारावी और खोड़ा के लोग हड़ताल पर चले जाएं, तो मुंबई और दिल्ली के बड़े हिस्से की गतिविधियां ठप हो जायेंगी। ड्राइवर के न आने से साहब लोग दफ्तर नहीं पहुंच पायेंगे और मेड के न आने से मैडम नौकरी पर नहीं पहुंच पायेंगी। यह सच है कि यूपी, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे हिंदी पट्टी के राज्यों में हम अभी बुनियादी समस्याओं को हल नहीं कर पाये हैं। अनेक क्षेत्रों में उल्लेखनीय उपलब्धि के बावजूद ये राज्य प्रति व्यक्ति आय के मामले में अब भी पीछे हैं। हमें इन राज्यों में ही शिक्षा और रोजगार के अवसर उपलब्ध कराने होंगे ताकि लोगों को बाहर जाने की जरूरत ही न पड़े।