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अहमदाबाद। किसी भी स्तर पर पहुंचने के लिए कुछ योग्यता-पात्रता होनी आवश्यक होती है। उदाहरण स्वरूप यदि किसी को कोर्ट में केस लडऩा हो तो उसे कायदों का ज्ञान होना चाहिए वकालय करने के लिए वकील बनना पड़ता है, यदि किसी को शिक्षक बनना है तो उसे एम.फील की डिग्री करनी पड़ती है। वैसे ही यदि किसी व्यक्ति को संपूर्ण विश्व का मित्र बनना हो तो उसे सहानुभूति, सहनशक्ति और सद्भाव इन तीनों परिबलों की आवश्यकता होती है।
उपरोक्त उद्गारों को व्यक्त करते हुए अहिंसा प्रेमी, विश्व कल्याण की प्रबल भावना में रमण करने वाले सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. फरमाते है कि जब कोई भी आत्मा भावों से भावित बन जाती है तब उसके लिए यह संपूर्ण विश्व अलग ही प्रतीत होता है। शास्त्रओं में मैत्र्यादि चार भावनाओं का वर्णन अनेक ग्रंथों में पाया गया है। यही बताता है कि इन भावनाओं की पवित्रता तथा आवश्यकता कितनी है। जैन श्रावकों के आवश्यक क्रिया प्रतिक्रमण में श्रावक के अतिचार स्वरुप श्री वंदित्तु सूत्र में कहा गया है मित्ती में सबभूएसु अर्थात् सर्व जीवों के साथ मैत्री स्थापित करना। शायद यह कार्य आपके लिए, हमारे लिए अशक्य हो सकता है लेकिन पूज्यश्री फरमाते है कि जिनसे मैत्री के बंधन से सकता है लेकिन पूज्यश्री फरमाते है कि जिनसे मैत्री के बंधन से जुड़ गये हो उन्हें संभालना, निभाना भी उतना ही दुष्कर होता है। 
इसलिए तो किसी चिंतक ने कहा है, रिश्ते बनाना जितना आसान है उतना ही उन्हें संभाल पाना कठिन होता है। किसी शादी-शुदा इंसान से पूछो कि क्या आप अपने स्कूल के सारे मित्रों के संपर्क में हो? कॉलेज में मिले सारे मित्रों के संपर्क में हो? जवाब होगा नहीं। इतनी सीमित संख्या में लोगों से मिलते-झुलते है फिर भी उनके संपर्क में नहीं रह पाते। समय का अभाव तथा मनभेद और मतभेद इस दयनीय परिस्थिति का कारण है। सर्वजीवों के साथ मैत्री स्थापित करना हो तो सर्वप्रथम प्रत्येक आत्मा को समानता से देखें। इसका अर्थ स्पष्ट करते हुए पूज्यश्री फरमाते है कि प्रत्येक आत्मा को अपनी तरह ही देखें। जैसे हमें प्रत्येक भावों की, परिस्थिति की, शब्दों की असर होती है वैसे ही सभी को होती है। हिन्दी भाषा में कहते है लेने के और देने के तराजू अलग-अलग ऐसा भाव नहीं रखना चाहिए। किसी के दु:ख में दर्द में सहभागी न बन सको तो कुछ नहीं लेकिन सहानुभूति तो सबको देनी चाहिए। आगे दूसरे परिबल पे चिंतन की धारा आगे बढ़ाते हुए पूज्यश्री  फरमाते है कि संबंधों को टिकाने के लिए निभाने के लिए परस्पर एक दूसरे की भूलों को माफ करना तथा कुछ भी अप्रिय हो तो उसे सहन करना चाहिए।
संबंध बनाने में देर नहीं लगती लेकिन उसे निभाना उसका निर्वाह करना वह एक साधना है। इस साधना में सबसे बड़ी और आवश्यक चीज है लेट जो करना। अर्थात् किसी से कोई भूल हो जाये तो उसे डांटने और चार लोगों की बीच सुनाने के बजाय पास बुलाकर, धीरे से और प्यार से उसे समझाना चाहिए। इससे परस्पर एक दूसरे के लिए सन्मान और सद्भाव दोनों बढ़ेगा। तीसरा मुख्य परिबल जो संबंधों को मिटास से भर देता है सद्भाव पूज्यश्री फरमाते है कि किसी संबंध से जब उद्वेग आ गया हो तो उसे संबंध को स्नेह की सुष्मा से सजाने के लिए एक विचार से मन को ह्रदय को भर देना कि जिस जगत के सर्व जीवों पे प्रभु की अमीदृष्टि पड़ी हो उन पर हमें दुर्भाव या तिरस्कार नहीं करना है बल्कि मंत्री भाव रखकर सद्भाव को बढ़ाना है। 
किसी चिंतक ने खूब लिखा है कि यदि सामने वाली व्यक्ति अपना स्वभाव या भूल सुधारने तैयार ना हो तो ह्रदय को उसके प्रति अधिक से अधिक सद्भाव से भर देना चाहिए। जिससे अपने मन से अधिक सद्भाव से भूर देना चाहिए। जिससे अपने मन के परिणाम निर्मल और शुद्ध बनेंगे। मैत्री के पवित्र रिश्ते की डोर में विश्व के तमाम जीवों को बांधने के प्रयास में सफल बनें यही याचना।