Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

अहमदाबाद। एक ही भाव जिसमें प्रत्येक व्यक्ति रहना चाहता है आनंद। आनंद में रहने के लिए उत्सव, महोत्सव, परिवार मिलन, आउटिंग आदि का आयोजन किया जाता है। नये कपड़े, नई जगह, नये लोगों को मिलने से मन में आनंद होता है। कुछ भी नया करने में उत्साह एवं आनंद होता है। कुछ जगह, नये लोगों को मिलने से मन में आनंद होता है कि कुछ भी नया करने में उत्साह एवं आनंद की उर्मियां भीतर में उछलती है।
सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न, गुणानुरागी, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा ने उपस्थित धर्मानुरागी भाविकों को संबोधित करते हुए फरमाते हैं कि यह उत्सव महोत्सव का आनंद तो क्षणिक होता है लेकिन गुणों के राग जो आनंद होता है वह चारों ओर से आनंद ही आनंद प्रदान करने वाला होता है। इसे प्रमोद भावना कहा जाता है। मैत्री भावना में आगे बढ़ते-बढ़ते अब प्रमोद भावना पर चिंतन की धारा आगे बहानी है। प्रत्येक आत्मा सद्गुणों से युक्त नहीं हो सकती तो दुर्गुणों से भी रहित नहीं हो सकती। सब में कुछ न कुछ खूबियां होती हैं तो खामियां भी होती ही है। हमें ्क्या ग्रहण करना है वह हमारी विचारधारा पे आधारित है, अपनी-अपनी सोच पर निर्भर होता है। गुणदृष्टि रखोगे तो गुणों के दर्शन से, अनुमोदन से आप भी उन गुणों के स्वामी बन पाओगे।
पूज्यश्री फरमाते है कि वर्तमान में कई बच्चे अपना ग्रेज्युएशन करने के लिए विदेश में जाते है। तब केवल पढ़ाई के लिए विदेश जानेवाला है ऐसा सोचकर ही माता-पिता आनंदित होते है। साथ ही खुद की संतान विलायन से अच्छी पढ़ाई करके लौटेगा यह कल्पना से ही समस्त आत्म प्रदेशों में आनंद का स्पर्श होने लगता है। भावि के विषय में सोचकर ही इतना आनंद होता है तो प्रत्येक जीव में भी भावि की आशा से सद्गुणों का वास होगा ऐसा सोचकर क्यूं आनंद नहीं होगा। गुणों की स्तवना करने से, गुणो का कीर्तन करने से, गुणों की अनुमोदना करने से, उन गुणों की प्राप्ति होती है। शास्त्रकार भगवंत तो फरमाते है कि व्यक्ति का राग छोड़कर गुणों का राग करें ताकि आप स्वयं भी आनंद रस से भूरपूर हो जाओगे और अपने आसपास के लोगों को भी आनंद प्रदान करोगे। प्रत्येक आत्मा में रहे सद्गुणों को देखना ही सद्दर्शन होता है जिससे सद्विचार आयेंगे और सद्गति की प्राप्ति होगी।
कलिकाल सर्वज्ञ हेमचंद्राचार्य म.सा. ने कहा है कि पंच परमेष्ठि के गुणों के चिंतन से ह्रदय आनंद से भर जाता है। उसमें एक विशिष्ट मेग्नेटिक पावर है जो सर्व गुणों को आकर्षित कर आपके पास खींच लाती है। प्रात: कालीन प्रकृति का सौंदर्य देखकर जैसे मन को निष्कारण ही आनंद होता है वैसे गुणानुरागी बनने से ही सर्वगुण सहजता से आ जाते है और अपार आनंद की प्राप्ति होती है। पंच परगेष्ठि के गुणों का चिंतन करते-करते सोचना है कि सर्वगुण संपन्न आत्माओं के समस्त गुणों का वर्णन, दर्शन, कीर्तन करने की शक्ति भले ही हमारे में नहीं है लेकिन प्रत्येक के एक-एक गुण तो अवश्य देख ही सकते है। अरिहंत परमात्मा का परोपकार, सिद्धात्माओं का कुशल कर्म संग्राम में विजय प्राप्त करना, आचार्य भगवंतों की शासन प्रभावना, पंचाचार प्रवर्तन,उपाध्याय भगवंतों का पठन-पाठन तथा साधु महात्माओं का निर्मल संयम पालन इस प्रकार से परमेष्ठि के गुण वैभव को संक्षिप्त रूप से पूज्यश्री ने समझाया। प्रत्येक आत्मा में गुण ढूंढोगे तो अवश्य गुण दिखेंगे, दोष ढूंढोगे तो दोष मिलेंगे। इसलिए कहा है जैसा दृष्टि वैसी सृष्टि। मैत्री भावना को दृढ़ता से ह्रदय में धारण करने के पश्चात् अब प्रमोद भावना में लग जाना है। मोद यानि आनंद, प्रमोद यानि चारों तरफ से आनंद। पूज्यश्री फरमाते है कि प्रतिपल मोद में नहीं बल्कि प्रमोद में व्यतीत करें। प्रमाद का त्याग करोगे तो प्रमोद भावना में वेग से आगे बड़ पाओगे और अवर्णनीय आनंद की अनुभूति होगी। प्राय: मोक्ष सुख का आस्वाद प्राप्ता होगा। अत: सर्व जीवों के प्रति प्रमोद भावना रखें।