
अहमदाबाद। जब पिताजी की रचना पूर्ण हुई और वे अपना ग्रंथ लेकर राजा भोज के दरबार में पहुंचे। राजा भी ग्रंथ पढ़कर खूब प्रसंन्न हुए उन्होंने धनपाल कवि को कहा कि है कविराज आपके संपूर्ण ग्रंथ का मैं ने अवलोकन किया, श्रवण किया। मेरा मन आपकी अद्भुत रचना से प्रसन्न है। बस अभी एक काम करो जहां पर अयोध्या नगरी और प्रथम तीर्थपति ऋषभ देव का नाम है उसके स्थान पे धरा नगरी और राजा भोज का नाम लिख दो तो मैं तुम पे अति प्रसन्न हो जाऊंगा। राजा यह यह प्रस्ताव सुनकर ही कविराज स्तब्ध हो जाते है। थोड़ी देर इस पर विचार करते हैं और फिर राजा को कहते है, हे राजन् मुझे माफ करें। यह कार्य मुझसे नहीं होगा क्योंकि इस संपूर्ण काव्य की रचना के दरम्यान मैं ने केवल प्रथम यतिधर, प्रथम नरेश्वर श्री आदिनाथ प्रभु (ऋषभदेव) तथा अयोध्याय नगरी को स्मृति पट पे लाकर ही किया।
यह सुनकर राजा अत्यंत क्रोधित हो उठा। उसने सैनिकों द्वारा अद्भुत काव्य ग्रंथ को अग्नि में जलाकर राख बना दिया। हताश-निराश और चिंतित महाकवि अपने घर लौटे। पिताजी की अस्वस्थता से पुत्री भी व्याकुल बनी। जैसे ही उसे पिताजी की चिंता का कारण पता चला वह दौड़ते-दौड़ते अपने पिता के पास गई और बोली, पिताजी आप चिंता ना करें। मुझे आपका बनाया हुआ संपूर्ण ग्रंथ कंठस्थ है। अत: आप उसे पुन: लिखें। यह गुणानुरागी पुत्री यानि तिलकमंजरी। पूज्यश्री फरमाते है कि रेडियो, एफ.एम,टी.वी. आदि पर बजेत गीत जल्दी याद हो जाते है। क्यूं? क्योकि आपको अच्छे लगते है। वैसे ही तिलकमंजरी को अपने पिता धनपाल महाकविल द्वारा बनाये गए अद्भुत श्लोक इतने पसंद आये कि उसने संपूर्ण ग्रंथ किसी को नये कपड़े पहनने का आनंद होता है तो किसी को नये मोबाईल फोन खरीदने का आनंद होता है, किसी को नई मिटाई, पक्वानादि खाने का आनंद होता है तो किसी को नई गाड़ी में बैठने का आनंद होता है लेकिन शास्त्रकार भगवंतकहते है कि किसी को सद्गुण दर्शन से आनंद उत्पन्न होता है।
श्री लब्धि-विक्रम गुरूकृपा प्राप्त, प्रशांत मूर्ति, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी भाविकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि जगत के तमाम जीवों के सद्गुण दर्शन करने से आप भी उन सद्गुणों के स्वामी बन पाओगे। शांत सुधारस ग्रंथ में विविध प्रकार की भावनाएं बताई गई है जिससे ह्रदय भावित बनता है। प्रमोद भावना से ह्रदय आनंद से भर जाता है। किसी के भी द्वारा कोई भी अच्छा कार्य हुआ हो तो उसकी अनुमोदना अवश्य करना ही चाहिए। किसी के गुण अनुमोदन से हमारे में भी उन गुणों का अवतरण होता है। ऐसे ही एक अनुमोदना प्रेमी पुत्री की कथा पूज्यश्री फरमाते है। एक महान कवि की बात है। यह कवि प्रतिदिन एक नये श्लोक की रचना द्वारा महान काव्य शास्त्र की रचना करते है। इस रचना में कवि इतने डूब गए थे कि उनकी पुत्री को प्रश्न हुआ कि पिताजी ऐसी क्या रचना कर रहे है? किसी की अस्खलित साधना-उपासना देखकर भी आनंद की प्राप्ति होती है। पिताजी की रचना को निहालने के लिए पुत्री प्रतिदिन पिताजी द्वारा बनाये गए श्लोक को कंठस्थ कर लेती। विस्मय की बात तो यह थी कि कवि को यह नहीं पाता था कि उनकी पुत्री प्रतिदिन श्लोक कंठस्थ करती है। आखिर में एक दिन आया ही कंठस्थ कर लिया। अत: पूज्यश्री फरमाते है कि मोद जिसमें आता है वह सरलता से और सहजता से याद हो ही जाता है। जीवन में आधि-व्याधि-उपाधि तो आने ही वाले है लेकिन उसमें दु:खी नहीं होना है। शरीर की पीड़ा से मन एकाग्र नहीं होता, मन विचलित हो तब शास्त्रों के या शास्त्रों के अर्थ का चिंतन कर पाना, समझ पाना कठिन होता है। अत: गुणानुराग में मस्त बन जाओ तो प्रमोद भावना में आगे बढ़ पाओगे। प्रमोद भावना में आगे बढ़ते शीघ्र परम पद की प्राप्ति हो यही शुभ भावना।