अहमदाबाद। कभी कभी किसी का नाम सुनते ही शुभ स्पंदन छूने लगते हैं। कभी-कभी किसी के प्रथम दर्शन से ही मन शुभ भावों से भर जाता है। वैसे ही शांत सुधारस ग्रंथ का नाम सुनते ही शुभ संवेदनाएं उत्पन्न होती है। इतनी सारी भावनाओं से युक्त यह ग्रंथ संवेदनशील तो होगा ही।
इसी ग्रंथ पे अपनी महान-अनोखी-अद्भुत चिंतन की धारा चलाते हुए, सर्वतोमुखी प्रतिभा संपन्न, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिप िप.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. विशाल संख्या में उपस्थित भाविक श्रोताओं को संोधित करते हुए फरमाते है कि प्रत्येक व्यक्ति को अस्खलित आनंद की अपेक्षा-अभिलाषा होती है। अस्खलित आनंद की प्राप्ति कैसे कर सकते है? पूज्यश्री मार्गदर्शन देते हुए फरमाते है कि प्रमोद भावना में रमण करते हुए पुण्यात्माओं को अवश्यमेव अस्खलित आनंद की प्राप्ति होती है। आचार से भी आनंद की साधना हो सकती है। जिनको आनंद प्राप्त करना हो उन्हें प्रकृति ही आनंदमय लगने लगती है। इसलिए तो कहते है कि जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि। यदि आनंद ढूंढोगे तो आनंद मिलेगा और दु:ख ढूंढोगे तो दु:ख ढूंढोगे तो दु:ख मिलेगा। दृष्टि को ही आनंदय बनाना यानि प्रमोद भावना। शास्त्रों में कृष्ण महाराजा की गुण दृष्टि का उदाहरण सुप्रसिद्ध है। कूडेदान के पास एक कुत्ती का शब पड़ा हुआ था। वहां से गुजरने वाले प्रत्येक व्यक्ति को उसके प्रति दुर्गंघ्ग हो रही थी। सब मुंह बिगाड़कर जाने लगे। उसी रास्ते से कृष्ण महाराजा गुजरे और सबके आश्चर्य का पार नहीं नहीं रहा। वे तो मुस्कुराते हुए वहां पे खड़े होकर उसे निहाल रहे थे। किसी पथिक ने उन्हें पूछ लिया कि राजन्। आप इधर खड़े-खड़े मुस्कुरा रहे हो, उसका कारण क्या है? कृष्ण महाराजा ने पथिक को उत्तर देते हुए कहा कि सब इस कुत्ती के शब को देखकर मुंह बिगाड़ते है लेकिन इसके दंत श्रेणी तो देखो कितनी अच्छी है। इस कथानक से यह बोध पाठ मिलता है कि गुण ढूंढने वालों को कहीं से भी गुण दिख ही जाते है। इसी बात को स्पष्टता से समझाते हुए सूरीश्वरजी ने फरमाया कि हम जिसकी तलाश में होते है वह चीज, व्यक्ति हमें मिलकर ही रहती है। एक भाई गटर के पास खड़े थे। गटर में बहते गंदे पानी में दिखाई दे रहे सोने के टुकड़े को लेने उन्होंने उस गटर के गंदे पानी में हाथ डाल और सोना निकाला। बाजू में खड़े दूसरे भाई ने कहा कि आपने यह क्या किया सोना लेने के लिए गटर के पानी में अपना हाथ डाला? उसने जवाब दिया कि गटर में बहता पानी अवश्य गंदा है लेकिन सोना तो हमेशा पवित्र ही होता है। पूज्यश्री फरमाते है कि इसी तरह चाहे कोई व्यक्ति में हजार दुर्गुण होंगे लेकिन सुवर्ण की तरह पवित्र ही होता है। पूज्यश्री फरमाते है कि इसी तरह चाहे कोई व्यक्ति में हजार दुर्गुण होंगे लेकिन सुवर्ण की तरह पवित्र एक सद्गुण तो उसमें छुपा ही होगा। अपनी गुण दृष्टि द्वारा उसके गुणों का संशोधन करें। अपने जीवन की प्रयोगशाला में गुणों का संशोधन करें परिणाम स्वरूप आप भी उन गुणों के स्वामी बन जाओगे। अपने जीवन की प्रयोगशाला में गुणों का संशोधन करें परिणाम स्वरूप आप भी उन गुणों के स्वामी बन जाओगे। अपने परिवार स्वजन मित्रों में सद्गुणों का संशोधन प्रारंभ करो। इससे आपकी गुण दृष्टि खिलेगी तथा अंत: करण अदम्य अवर्णनीय आनंद से भर जायेगा। सद्गुण दर्शन से सद्विचारों का अवतरण होगा और इससे आचार में परिवर्तन आयेगा। शास्त्रकार महर्षि फरमाते है कि शिविरों में नहीं जाओगे तो चलेगा, अष्टांग योग की सिद्धि करने की भी कोई आवश्यकता नहीं है बस प्रमोद भावना में आगे बढऩे से कार्य हो जायेगा। किसी के चरणों में शीश नहीं नमाओगे तो चलेगा लेकिन ह्रदय को अवश्य झुका देना। गुणों के तरफ झुकने से सर्व कार्यों में सिद्धि प्राप्त होगी और अंतर में अस्खलित आनंद की वृद्धि होगी। पूज्यश्री कहते है कि सुवर्ण-रत्न-हीरे-रजत आदि की खान शायद पैसों से खरीदी जा सकती है लेकिन गुणों की खान खरीदना हो तो प्रमोद भावना ही अनिवार्य है। बस प्रमोद भावना की साधना-उपासना में लग जाये और शीघ्र वीतराग भाव में रमण करें यही अभ्यर्थना।
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