
अहमदाबाद। सबको अलग-अलग प्रकार के विचार आते हैं। विचार के दो प्रकार है शुभ -अशुभ! कहते हैं विचार जब दृढ़ बनकर आचार में परिणित होते हैं तो वह संस्कार होता है। विचार कभी भी आचार में ही परिणामन होते है। आत्मा में अनादि काल से अनेक प्रकार के संस्कार पड़े है। अब उनमें से जो अनावश्यक है उन्हें अलविदा करना है और जो आवश्यक है उन्हें रख लेना है।
पाश्र्व-पभा लब्ध प्रासाद, अनेक प्राचीन तीर्थों के जीर्णोद्धारक, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ. देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. की शुभ मिश्रा में संस्कार सौंदर्य की सुंदर शिविर का आयोजन हुआ। जीवन सौंदर्य शिविर का नव्य-भव्य आयोजन किया। भाविक गण तो पूज्यश्री की मधुरवाणी श्रवण कर धन्य बनें। पूज्य गुरूदेव कहते है कि बच्चे होशियार कम होंगे तो चलेगा लेकिन संस्कारी तो होने की चाहिए। बच्चों में संस्कारों का सिंचन करना माता-पिता का प्रथम कत्र्तव्य है। कहते है चाहे कितना भी महान व्यक्ति हो, कितना भी शक्तिशाली हो, चाहे कोई दिव्यात्मा हो या भव्यात्मा हो, अरे! तीन ज्ञान के स्वामी, तीन लोक के नाथ ऐसे तीर्थंकर परमात्मा भी क्यूं ना हो सभी को सर्वप्रथम स्टाप तो माता के उदर में ही होता है। अत: शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि जब से माता-पिता को पता चले कि कुक्षी में कोई जीव आया है तो उसे संस्कार देने का प्रारंभ करें।
यह जानने की मूर्खता ना करे कि जीव लड़का है या लड़की! चाहे कोई भी लिंग हो संतान तो आप ही की है। प्रत्येक माता-पिता का यह परम कत्र्तव्य है कि अपनी संतानों को गर्भावस्था से ही संस्कार देने प्रारंभ कर दे। माता को बहुत त्राटक शब्द आदि का उपयोग नहीं करना चाहिए। सूत्राधिराज कल्पसूत्र में गर्भ पालन के नियत विस्तृत रूप से बताये गये है। उदर में आते ही जीवन संस्कारों का सिंचन करने लगता है। जब बालक-बालिका का जन्म हो जाये तब संस्कारी पिता अपनी पत्नी यानि संतान की माता को हाथ जोड़कर कहते है कि आज से तेरा और मेरा मिलन केवल प्रभु के साथ ही। अब ये अब्रह्म का सेवन नहीं करेंगे। इसके बाद पूज्य गुरूदेव ने अपना ेक अनुभव सभा के समक्ष व्यक्त किया। एक भाई बहुत आग्रह भरी विनंति करके पूज्यश्री को अपने घर पगले कराने ले गए। पूज्यश्री को के पदार्पण से कोई एकदम आनंदित हो गए। उन्होंने पूज्यश्री को कहा कि मेरा घर तो आप बाद में देखना लेकिन पहले मेरे बगीचे में चलिये। बगीचे में ले गए और देखा कि वह भाई स्वयं ही पुष्पों को प्रेम से स्पर्श करते, पौधों को पानी से सिंचते और शांति से बगीचे की सार संभाल के लिए अच्छा समय निकालते। तब पूज्य गुरूदेव ने कहा कि भाई! पौधों को और पुष्पों को तुम जितना संभालते हो, जितना समय देते हो वैसे ही अपनी संतानों की भी सार संभाल करना।
बगीचे के फूलों के लिए समय मिल जाता है पालतू पशुओं का पालन करने के लिए समय मिल जाता है लेकिन अफसोस अपनी ही संतानों को संस्कार देने केलिए समय का अभाव होता है। माता-पिता को एक बात समझने की आवश्यकता है किपुत्र-पुत्री को संस्कार केवल समझने की आवश्यकता है कि पुत्र-पुत्री को संस्कार केवल अपने स्वार्थ के लिए नहीं देना है बल्कि विव को एक महान व्यक्ति की भेंट देना है। विश्व भी ऐसी ही महान व्यक्तियों की झंखना करता है, एक महान संस्कारी माता की झंखना करता है, महान पिता की झंखना करता है। अत: इस हेतु से संतानों में सुंदर संस्कारों का सिंचन करना है। प्रत्येक माता-पिता को समझ लेना चाहिए कि जब से जीव गर्भ में आये तब से संस्कारण का महान कार्य प्रारंभ कर देना चाहिए। क्योंकि गर्भ में जैसे शिशु के शरीर का धीरे-धीरे विकास होता है वैसे ही उसे संस्कार देकर उसकी शक्तिशाली आत्मा का भी विकास करना अनिवार्य है। पूज्यश्री तो कहते है कि यदि संतानों को संस्कार नहीं दे सकते तो माता-पिता बनने का कोई अधिकार नहीं है। संतानों में सुंदर संस्कारों का सिंचन करं जिससे वे महात्मा बनकर शीघ्र परम पद को प्राप्त करें।