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अहमदाबाद। किसी के लिए स्वर्ण मूल्यवान होता है, किसी के लिए संपत्ति मूल्यवान होती है। किसी के लिए अपना मकान मूल्यवान होता है। किसी के लिए अपनी नौकरी मूल्यवान होती है, लेकिन शास्त्रकार भगवंत फरमाते हैं कि मनुष्य जन्म सबसे मूल्यवान है। चौदह राजलोक के समस्त जीव जिस गति के लिए तरसते हैं, झंखना करते हैं वह मनुष्य भव ही है। क्योंकि मनुष्य भव ही एक ऐसी गति है जिससे मोक्ष की प्राप्ति हो सके।
श्री लब्धि-विक्रम गुरु कृपा प्राप्त, प्रभावक प्रवचनकार, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीर्ता गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुे फरमाया कि तीन लोक के नाथ, सर्वज्ञ ऐसे वीतराग परमात्मा द्वारा चार प्रकार के धर्म की आराधना बताई है। दान-शील-तप-भाव इन चारों में से दान धर्म इंजीन है और भाव धर्म गॉर्ड मास्टर है। पूज्यश्री फरमाते है कि भाव धर्म को गॉर्ड मास्टर इसलिए बनाया क्योंकि गार्ड जैसे ट्रेन के पीछे बैठकर संपूर्ण यात्रियों की तथा ट्रेन की सुरक्षा तथा संचालन करते है वैसे दान-शील और तप धर्म भाव रहित हो तो कोी अथ नहीं रहता। दान धर्म हो, शील धर्म हो या तप धर्म हो प्रत्येक में शुभ भावों की उतनी ही अनिवार्यता है। तीन प्रकार के धर्मों धर्म समान मोतियों को जोडऩे के लिए भाव धर्म एक डोरी स्वरुप है। इतना महत्व है भाव धर्म का। इसी महत्ता को बढ़ाते हुए उपाध्याय श्री विनयविजयजी महाराज ने गेयात्मक शब्दों का सुंदर संकलन कर हमें एक भेंट दी है। सोलह-सोलह भावनाओं से युक्त यह महान ग्रंथ शांत रस का वेत्ता है। भाव सुधारस का पान कराता है। पूज्यश्री फरमाते है कि इन भावनाओं के अंतर्गत केवल विचारों में परिवर्तन नहीं चलेगा लेकिन आचार में भी वेग से परिवर्तन होना अनिवार्य है। ऐसा सोचना चाहिए कि खराब करें वो भी मेरा ही मित्र है, अच्छा करें वो भी मेरा ही मित्र है। मैत्री भावना को दृढ़ करके प्रमोद भावना की ओर अपना सफर आगे बढ़ाएं। कहा गया है। गुणीजनों के साथ रहते हैं तो एकाद गुण तो हमारे में भी अवश्य आयेगा ही। आज नहीं तो कल, अभी नहीं तो कभी न कभी तो हमारे में भी दोष प्रवेश कर सकते है। अत: सदैव अपने आसपास में रहते लोगों के गुण दर्शन कर गुणगान करें जिससे हजारे में भी वे गुण प्रवेश करेंगे। यह भावनाएं हमें तंदुरस्त बनाने के लिए ही बताई गई है।
पूज्यश्री फरमाते है कि जब हमारे में भावों की तन्मयता आ जाये तब भाव दृढ़ बन जाते है और जीवन में आचार में, विचार में परिवर्तन आ जाता है। किसी के भी साथ किया हुआ व्यवहार वर्तन और बोले गए वचन ही याद रहते है। सुंदर व्यवहार, मधुर वाणी, सौभ्य वर्तन व्यक्ति के मन को स्पर्श कर जाती है और इसके विपरीत यदि व्यवहार वर्तन हो ते किसी के भी मन को दु:ख होता है। पूज्य गुरूदेव प्रमोद भावना की चिंतनधारा आगे बढ़ाते हुए फरमाते है कि किसी के भी गुणों को देखकर उसकी प्रशंसा करनी चाहिए। अपने परिचय में जितने भी लोग है उनसे गपशप और इधर-ऊधर की बातें करने के बजाय उन्हें पूछे कि यदि उनके ध्यान में किसी के द्वारा किए गए अनुमोदनीय कार्य हो तो कृपया हमें बताना। आप भी अनुमोदना कर महान पुण्य का उपार्जन कर पाओगे। गपशप और पंचायत से ना ही आपका मन शांत रहेगा, चित्त भी प्रसन्न नहीं रहता और पाप कर्म का बंध होता है वो अलग प्रमोद भावना में जो रमण करे उसका मन शांत, चित्त प्रसन्न और ह्रदय आनंद से भरपूर रहता है। प्रतिदिन अच्छे-अच्छे विचारों में रमण करने से स्वयं भी आनंद में रह पाते हैं और आसपास में रहते लोग भी आनंद में रहते है तथा परिचित सब लोग आनंद की अनुभव करते है। ऐसे आनंद प्रदान करने की शक्ति और कोई परिबल में नहीं। पूज्यश्री प्रमोद भावना को दृढ़ बनाने हेतु मार्गदर्शन देते हुए फरमाते है कि किसी में भी अवगुण देखो तो भी उसे बोलना नहीं। गुणदेखो तो बोलने में देर करना नहीं।