Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

अहमदाबाद। प्रत्येक व्यक्ति को जीवन में आगे बढऩे की, सफल होने की कामना होती है। सफल बनने के लिए, सिद्धि हासिल करने के लिए साधना करनी पड़ती है। गुफा में बैठकर, मंत्रोच्चार या तपश्चर्या करना ही साधना नहीं होती पर अपने दुर्गुणों को हटाकर सद्गुणों को स्थापना करना, दुर्विचारों को निकालकर सद्विचारों को बसाना दुराचार छोड़कर सदाचार को अपनाना भी एक साधना ही है। इस साधना में अनेक अवरोधक परिबलों का सामना होता है। जैसे कि स्पर्धा, ईष्र्या, अभिमान, छोटी-छोटी निष्फलताएं आदि। इन सभी को जीतकर ही मंजिल तक पहुंचा जा सकता है। कोई अेथीलिट हो तो उसे रिले राउंड तक पहुंचने के लिए अन्य स्पर्धार्थियों से जीतना ही पड़ता है। यदि वह उन स्पर्धार्थियों को अवरोधक मानकर ट्रेक पे दौड़ेगा ही नहीं तो वह कभी रेस नहीं जीत पायेगा। ऐसा ही कुछ जीवन में भी है। 
प्रशांत मूर्ति, अनन्य प्रभु भक्ति में तल्लीन, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति पं.पू.आ. देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी भाविकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि प्रमोद भावना में आगे बढऩे के लिए, उसे दृढ़ बनाने के लिए अवरोधकों को जीतना अनिवार्य होगा। ईष्र्या और अभियान दो ऐसे परिबल है जो सर्वनाश का सर्जन कर सकते है। किसी चिंतक ने खूब लिया है कि ईष्र्या वह किसी के द्वारा या किसी के निमित्त से नहीं उत्पन्न होती, वह तो स्वयं को अधिक महत्ता देने से उत्पन्न होती है। स्वयं के विचारों के कारण उत्पन्न हुई इस ईष्र्या को जीतना है और भीतर में प्रमोद भावना की स्थापना करना। ऐसी ही एक सत्य घटना आज से कुछ वर्षों पूर्व घटित हुई थी। एक गुरु के तीन शिष्य थे। सबकी अपनी ही अलग खूबियां थी। पूर्व काल में महात्मा बहुत विशिष्ट प्रकार की साधनाएं करते थे और साधना स्थल भी अधिकतर एकांत ही पसंद करते। लेकिन इन गुरु महाराज के तीन शिष्यों में से एक ने कहा कि हे गुरू भगवंत आप मुझे वेश्या के घर। चातुर्मास करने की अनुमतिप्रदान कीजिये। गुरू भगवंत ज्ञानी और दीर्घदृटा थे, मुनि के सांसारिक जीवन से भी परिचित थे। मुनि की योग्यता और पात्रता को भी ध्यान में रखते हुए गुरू भगवंत ने अनुमति प्रदान की। मुनि भगवंत का तेज, रुप लावण्य देखकर कोई भी स्त्री उन पर मोहित हो जाये ऐसी संपूर्ण शक्यता होने पर भी गुरू महाराज ने मुनि भगवंत की योग्यता को देखकर ही अनुमति प्रदान की। वे वेश्या के यहां चातुमा4स करने गए। वेश्या भी उतनी ही सुंदर, नृत्य कला तो इतनी अद्भुत की सरसव के दानों के ढेर में से एक दाने पे सुई रखी हो, उस पर कमल का पु,्प रखा हो और उसमें वह वेस्या नाचती। वह वेश्या थी लेकिन उसकी आत्मा भी ेक सही राह की झंखना कर रही थी। कुछ समय पूर्व जिनके साथ भोग-विलास में इतना समय बिताया हो आज वहीं मुनि बनकर उसके यहां चातुर्मास करने पधारे है। प्रतिदिन मुनि भगवंत उसे प्रतिबोध करते, जैन धर्म के विषय में समझाते और चातुर्मास संपन्न हुआ तब तक वह वेश्या भी जैन धर्म की अनुरागी बनी और उसने बारह व्रतों का स्वीकार किया। मन में ईष्र्या की लहर आई। हमें तो केवल एक बार दुष्कर कहा और ये मौज-मजे से वेश्या के यहां चातुर्मास पूर्ण कर आया उसे दो बार। बस ईष्र्या की उत्पत्ति ने स्पर्धा तक पहुंचा दिया। दो मुनियों में से एक ने वेश्या के यहां चातुर्मास करने गए। थोड़े दिन रहे और उन्हें ज्ञात हुआ कि ज्यादा दिन यदि यहां रहूंगा तो मेरा पतन हो जायेगा। फिर भी ईष्र्या और अभियान के कारण वे वहीं रहे।
इससे पूज्यश्री यही समझाते है कि प्रतिक्षण, प्रतिपल प्रमोद भावना में रहना सीखो। प्रत्येक व्यक्ति के गुणों का अनुमोदन करो आप बहुत ही सरलता से उन गुणों के स्वामी बन जाओगे। ईष्र्या से गुणवान तो नहीं बन पाओगे उल्टा पतन की तरफ पहुंच जाओगे। अत: पूज्यश्रीकहते है कि यहां रखकर प्रमोद भावना में रमण करने से मोक्ष का आस्वाद मिलेगा।मोक्ष सुक का अस्वाद चखने का अवसर प्राप्त होगा।