
अहमदाबाद। रास्ते पर अपनी दुकान लेकर बैठने वाले फेरियों की दुकान पर मिलती चीजों पर शायद मूल्य नहीं लिखा रहता, जबकि बड़े-बड़े मॉल, दुकानों यादि में मिलती चीजों पर मूल्य लिखा रहता है। फेरिये वाले की दुकान पे शायद सौदेबाजी कर लेते है, लेकिन शो रुमों में मॉल में सौदेबाजी नहीं कर सकते। इमिटेशन गहनों पर भी लगभग मूल्य लिखा हुआ होता है, लेकिन सोने-चांदी-प्लेटीनम और डायमंड के गहनों पर कोई मूल्य नहीं लिखा रहता है। इन सबसे यही समझना है कि कोई भी चीज के मूल्य के आधार से ही उसे आंका जा सकता है।
श्री लब्धि विक्रम गुरूकृपा प्राप्त, प्रभावक प्रवचनकार, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि जब हमें किसी चीज की अत्यंत आवश्यकता होती है तब हम उसकी कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार हो जाते हैं अन्यथा नहीं। इस बात को स्पष्ट रूप से समझाने के लिए पूज्यश्री ने एक दृष्टांत सुनाया किसी व्यक्ति ने किसी दूसरे भाई को कहा कि तीन मिनट में रास्ता मिल जायेगा चिंता ना करें। वह भाई तीन महीनों तक घूमे लेकिन उन्हें रास्ता ही नहीं मिला। तीन महीनों तक घूम-घूमकर जब वह थक गया और भूख-प्यास से पीडि़त हुआ तब उसने सोचा कि काश यहां कोई पानी बेचने वाला मिल पाये या फिर कोई घर, कोई कुंआ, नर्द या सरोवर मिल पाये जो मेरी प्यास को बुझा सके। उतने में ही सामने से एक व्यक्ति छोटे से मटके में पानी लेकर आ रहा था। उसके हाथ में रहे मटके को देखकर भाई प्रसन्न हुए और जाकर बोले कि चाहे जितनी कीमत ले लो पर मुझे पानी दे दो। उसने कहा मुझे पानी के बदले पैसे नहीं बल्कि आपके गले में रहा हुआ हार चाहिए। भयंकर प्यास से पीडि़त उस भाई ने जल्दी से हार निकालकर दे दिया और पानी पीकर तृप्त हुआ। अर्थात् प्रत्येक चीज की कीमत द्रव्य-क्षेत्र-काल और भाव के अनुसार होते हैं तथा हम उसे कैसे समझ पाते हैं उस पर निर्भर करता है। पूज्यश्री फरमाते हैं कि महामूल्यवान ऐसा मनुष्य भव मिला उसकी कीमत, उसका मूल्य हम नहीं समझ पा रहे, क्योंकि हम इस बात से अंजान है कि हमने उसकी क्या कीमत चुकाई है। परंतु एक बात अवश्य समझने जैसी है कि अमूल्य मानव भव को यूं ही व्यर्थ नहीं जाने देना है। शास्त्रकार भगवंतों द्वारा बताई आराधनाओं द्वारा जीवन को सार्थक एवं सफल बनाना है। क्रोध-मान-माया-लोभ-राग-द्वेष-ईर्या आदि को छोड़कर सद्गुणों से आत्मा को भर देना है। सद्गुणों की सद्विचारों की तथा सद्भावों की हारमाल गूंथ देना है। जब तक ये कषाय तथा खराब विचार अपना पीछा नहीं छोड़ देते तब तक गुण दृटि नहीं खुलती। सामने वाले व्यक्ति में रहे गुण नजर नहीं आते। जब गुण दृटि खुलती है, दृष्टि व्यापक बनती है तब सर्वोत्कृष्ट सर्वोत्तम शासन पर दृष्टि पड़ती है। अंतर के भावों में बहुत बड़ा परिवर्तन आ जाता है। विचार इस प्रकार के होते है कि अनेक भवों से भटक रही आत्मा को महापुण्याई से इस बार मनुष्य भव की प्राप्ति हुई तो इसकी प्रत्येक क्षण को सार्थक कर लूं, इस भव को सफल बना लूं, कर्म बंध ना हो ऐसा जीवन जी लूं और परमात्मा की खूब भक्ति करूं ऐसी परम मंगलमयी भावनाएं जिनमें बहती हो वे ही उपलब्धियों को हासिल कर सकते है। कोई भी सिद्धि हासिल करनी हो तो मेहनत करनी पड़ती है। पूज्यश्री फरमाते है कि जैसे बाल मंदिर में पढऩे वाले विद्यार्थी को आंकड़े और अक्षरों का ज्ञान देने के लिए, लिखाने के लिए उस पर घूटाते है। प्रतिदिन इस प्रकार घुटाते-घुटाते वे। लिखना और बोलना सीख लेते है। ठीक उसी तरह शास्त्रों का एक बार अवलोकन करने से याद नहीं रहता,गाथा एक बार ले लेने से या पढ़ लेने से याद नहीं हो जाती उसके लिए पुरूषार्थ करना पड़ता है। बस एक लक्ष्य बना लो कि जीवन में जितना हो सके उतना अभ्यास जिम्मेदारी संभाल लेने वाले हो उन्हें कमाने की आवश्यकता नहीं है। केवल ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप, दीर्य की अधिक से अधिक आराधना में लग जाये। दिन प्रतिदिन आराधना मेंआगे बढऩा है इस बात को घुटते जाओ और आगे बढ़ते जाओ यही शुभ निर्देश।