
अहमदाबाद। रास्ते पर चलते-फिरते कई दुकाने दिखती है। उन में से किसी एक दुकान की चीज पसंद आये तो उस दुकान में हम प्रवेश करते है और भी दूसरी चीजों का अवलोकन करते है। फिर कुछ मनपसंद उपयोगी चीजें खरीदते हंै। वैसे ही जीवन में हम अनेक लोगों से मिलते हैं। उनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो पहली नजर में ही हमारा मन मोह लेते हैं। फिर हम उनके पास जाते है, बातें करते हैं, चर्चा-विचारणा करते हैं और उसके बाद उनके कुछ गुणों को, गुण के अंश को अपनाने का प्रयास करते हैं।
श्री पाश्र्व-प्रभा लब्ध प्रासाद, मौलिक चिंतक, गुणानुरागी, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति, प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि महापुरुषों के जीवन से कोई न कोई प्रेरणा मिलती ही है। प्रेरणा से जीवन में कुछ नया, कुछ अनोखा करने की राह मिलती है। ऐसे प्रेरक महापुरुषों में से ही एक थे संघ स्थविर प.पू.आ.देव सिद्धिसूरीश्वरजी म.सा. (बापजी म.सा.) जिनकी 62 वीं पुण्यतिथि के अवसर पे पूज्यश्री की निश्रा प्रेरणा एवं मार्गदर्शन से भव्य गुणानुवाद सभा का आयोजन हुआ। इस महापुरूष, परम पवित्र साधक ने अपने जीवन के 73 वें वर्ष से युगादि तप वर्षीतप की आराधना का प्रारंभ किया और 105 वर्ष की दीर्घायु में भी यह तपश्चर्या चालू ही थी। कुल पैंतीस वर्षीतप के महान तपस्वी बाजपी म.सा. के चरण कमल में भावपूर्वक नमन-वंदन।गुणानुरागी पूज्यश्री ने पू.बाजपी म.सा. के अन्य जीवन प्रसंगों का वर्णन करते हुए फरमाया कि वर्षों पूर्व विद्या शाला में पू.बापजी म.सा. का चातुर्मास था, ज्ञान मंदिर में पू.दादा गुरूदेव लब्धि सू.म.सा., पू.आ.देव प्रेमसूरीश्वरजी म.सा. तथा पू.आ. देव रामचंद्र सू.म.सा. आदि ठाणा चातुर्मास हेतु बिराजमान थे। उस समय में चंडांशु चंडा पंचांग के मुताबिक सब आराधना होती थी। उस वर्ष चंडांशु चंडा पंचांग की तिथि में संवत्सरी अलग आ रही थी संघ में थोड़ी चर्चा का विषय बनने जा रही इस भेद रेखा को मिटाने तथा संघ समन्वय कराने के लिए दोनों महापुरू संघ स्थविर पू.आ. देव सिद्धिसूरीश्वरजी म.सा. तथा वादि विजेता पू.आ.देव लब्धि सू.म.सा. ने संघ एकता तथा संघ समाधि हेतु विचारणा कर यह निश्चित किया कि जन्मभूमि पंचांग भी प्रत्यक्ष पंचांग के रूप में मान्य थी। तो जन्मभूमि पंचांग के मुताबिक तिथि एक ही आर रही थी। अत: संघ एकता तथा संघ समाधि को ध्यान में रखते हुए दोनों ने मिलकर श्री संघ को जन्मभूमि पंचांग के मुताबिक संवत्सरी पर्व की आराधना एक ही दिन में करने का निश्चय करवाया।
शास्त्रों के मर्मज्ञ पूज्य गुरूदेव श्री ने फरमाया कि शास्त्रों, में तो दोनों बातें आती है। वाद-विवाद में जिनको रस हो उनको वाद-विवाद के पाठ मिलते है। शास्त्रभेद से मतभेद नहीं उत्पन्न हुए बल्कि स्वभाव भेद से मतभेद और उससे भी अधिक मनभेद उत्पन्न होते है। प्राय: एक धर्म के शास्त्र अन्य धर्म के शास्त्र के साथ रह सकते है लेकिन एक अहंकारी व्यक्ति के साथ दूसरा अहंकारी व्यक्ति नहीं रह सकता, क्योंकि अहंकार किसी को किसी के साथ नहीं रहने देता। पूज्यश्री ने फरमाया कि प्रत्येक शास्त्र, शास्त्रों के पाठ द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव को ही आधीन है। उसके विषय में सोचने की परिपक्वता केवल महापुरूषों में ही है। ये तो ऐसे महापुरू थे जिनके केवल नाम में ही नहीं बल्कि काम में सिद्धि, गुणों में सिद्धि, तप में सिद्धि तथा ज्ञान-दर्शन में भी सिद्धि प्राप्त की हुई थी। इन महापुरूष के पावन करकमलों द्वारा एक हजार आठ मुमुक्षु आत्माओं को प्रभु के पथ ऐसे संयम जीवन, रजोहरण समर्पित किया गया। कई लोग तो कहते है कि यह महान आत्मा आसान्न मोक्षगामी आत्मा है।
पूज्यश्री ने उपस्थित गुरूभक्तों को समझाते हुए फरमाया कि जैसे दादा गुरूदेव लब्धि सू.म.सा. के जो अनुयायी है, उनके जो गुरू भक्त है वे निंदा नहीं करते वैसे बापजी म.सा. के अनन्य गुरूभक्तों को क्रोध से दूर रहना है तथा समाधान वृत्ति को अपनाना है। महापुरूषों के उत्तम गुणों को, गुणों के अंश को अपनाकर जीवन महान बनाये, आत्मा को परमात्मा बनायें।