Head Office

SAMVET SIKHAR BUILDING RAJBANDHA MAIDAN, RAIPUR 492001 - CHHATTISGARH

अहमदाबाद। जैन धर्म में अनेक प्रकार के पर्व बताये गए हैं। उनमें से शाश्वत पर्व है नवपदजी की ओली। यह पर्व अपने आप में ही एक अनूठा पर्व है। यह पर्व केवल मनुष्य लोक में ही नहीं बल्कि देवलोक के देव भी मनाते हंै। देवता गण भी इन नौ दिनों के दौरान नंदीश्वर द्वीप में जाकर बड़े ही ठाठ-माठ से अट्ठाई महोत्सव मनाते हैं।
इस पर्व के दरम्यान पंच परमेष्ठि की आराधना करनी होती है। प्रतिदिन अनुक्रम से एक-एक पद की आराधना होती है। प्रथम दिन अरिहंत पद की आराधना, द्वितीय दिन सिद्ध पद की आराधना। श्री पाश्र्व-पभा लब्ध प्रासाद, मौलिक चिंतक, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीवर जी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी  श्रोताओं को संबोधित करते हुए फरमाया कि विश्व में सर्वोच्च-सर्वोच्च-सर्वोत्कृष्ट पद यदि कोई है तो वह है अरिहंत पद की आराधना। यह सर्वोच्च पद किसको प्राप्त होता है? जिसको प्राप्त करना हो उसे यह प्राप्त हो सकता है। केवल सोच लेने से अरिहंत नहीं बन जाते उसके लिए पुरुषार्थ करना पड़ता है। अरिहंत परमात्मा का सर्व सामान्य-सर्वग्राह्य गुण है परोपकार। जब अपने रोम-रोम में, समस्त आत्म-प्रदेश में परोपकार की पवित्र भावना जागृत हो व्याप्त हो जाये तब अरिहंत बनने की योग्यता हमारे में प्रगट होती है। स्व पे नहीं बल्कि पर में जो ध्यान रखे वो आत्मा ही अरिहंत बन सकती है। पूज्यश्री फरमाते है कि अरिहंत परमात्मा पिछले तीन भवों से सवि जीव करुं शासन रसी की पवित्र भावना में रमण करते है। स्न्नान पूजा में कहा गया है वीश स्थानक विधिये तप करी ऐसी भाव दया दिल मां धारी, जो होवे मुज शक्ति इसी सवि जीव करुं शासन रसी... अर्थात् विधिपूर्वक वीश स्थानक तप करने में तीर्थंकर नाम कर्म निकाचित होता है तथा सर्व जीवनों के प्रत्ये भाव दया रखने से, उन्हें शासन का बनाने से भी अरिहंत पद की प्राप्ति हो सकती है। पूज्यश्री फरमाते है कि शरीर से तप हो सकती है लेकिन भाव आराधना तो केवल ह्रदय से हो सकती है। अत: पर का कार्य करने का कोई भी अवसर मिले तो उसे कभी चूकना नहीं। पूज्यश्री ने वर्तमान में चल रहे एक फेशन प्रवाह को ध्यान में रखते हुए फरमाया कि पहले के जमाने में सूर्यास्त के बाद युद्ध भी नहीं होते थे और आज रात को भोजन करते समय जैसे जीवों के साथ युद्ध ना करते हो ऐसा महसूस होता है। अरे शत्रु सैन्य का सैनिक भी युद्ध भूमि के सिवाय मैत्री और परोपकार जैसे भोवों से भाक्ति हो सकती है। एक बार सूर्यास्त के बाद युद्ध बंद हुआ। दोनों प्रतिस्पर्धा सैनिक अत्यंत घायल अवस्था में युद्ध भूमि में पड़े थे। एक सैनिक ने देखा हम दोनों की दसा बहुत खराब है किंतु मुझसे अधिक उसे पानी की आवश्यकता है। जब उसके सहवर्ती उसके लिए पानी लाये उसने कहा कृपया यह जलपान वहां मृत्युशरय्या पर पड़े मेरे उस मित्र सैनिक को दो। उसे इसकी अधिक आवश्यकता है। वैर भावना, शत्रुता को उपशम कर उसने अपने प्रतिस्पर्धा पर परोपकार किया। जैसे-जैसे वह पानी पीता गया वह तृप्त और शांत होता गया और धीरे-धीरे स्वस्थ हुआ। इस तरफ वह सैनिक अपने प्राण खो बैठा। यह दृय देखकर प्रतिस्पर्धी सैनिक का ह्रदय भी हिल गया और उसने सोचा कि सचमुच वह अत्यंत महान आत्मा थी। उसके परोपकार एवं मैत्री भावना के फलस्वरूप दूसरे दिन से युद्ध दिन से युद्ध ही बंद हुआ।
व्यापार में जब कभी ऊंच-नीच होती है या फिर कोई नुकसान हो जाये तो भी कमाना तो नहीं छोड़ते वैसे ही शास्त्रकार भगवंत कहते है कि धर्माराधना भी नहीं छोडऩी चाहिए। जिनालय में बैठे अरिहंत परमात्मा तो एक स्थान में स्थायी है यदि आप चाहो तो उन अरिहंत परमात्मा को प्रतिफल, प्रति क्षण साथ रखना हो तो मन में दूसरों के लिए उत्तम भावना रखनी चाहिए। जीवन में स्व. को नहीं बल्कि पर को मुख्यता, प्रधानता देने वाला आत्मा ही अरिहंत बन सकती है। पूज्यश्री की इस प्रबल प्रेरणा लेकर हम भी शीघ्र श्वेत वर्णीय बारह गुण संयुक्त अरिहंत पद को अवश्यमेव प्राप्त करें ऐसी मंगल प्रार्थना।