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अहमदाबाद। सृष्टि पर अनेक चीजों का निर्माण हुआ है। प्रत्येक चीज का अपना ही एक महत्व है। मानव मशीनों पर विश्वास करने लगा है और वह विश्वास धीरे-धीरे श्रद्धा में परिवर्तित हो रही है। मनुष्य खुद से भी अधिक यंत्रों पर विश्वास करने लगा है, उसे यह श्रद्धा हो चुकी है कि यंत्र कभी गलत नहीं हो सकते है।
प्रशांत मूर्ति, आगम सूत्रों के वेत्ताष सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्माराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि मोबाईल केलक्युलेटर आदि जो मानव द्वारा ही निर्मित है उस पर अटूट श्रद्धा है तो क्या सर्वज्ञ, त्रैलोक्याधिपति जिनेश्वर परमात्मा के अमृतमय वचनों पर श्रद्धा है? स्वयं द्वारा बनाये हुए तंत्र-यंत्र पे श्रद्धा हो सकती है तो प्रभु वचन रूपी मंत्र पर उससे कई गुणा अधिक श्रद्धा होनी ही चाहिए। नवपदजी आराधना का छट्ठा दिन दर्शन पद की आराधना! दर्शन यानि श्रद्धा! प्रभु वचन पे. प्रभु के बताये मार्ग पे अटूट श्रद्धा! ऐसी श्रद्धा की चिाहे कोई कुछ भी बोले मेरे प्रभु ने जो कहा है, जो बताया है वहीं परम सत्य है। परम श्रद्धेय है। ऐसी श्रद्धा को शास्त्रकार महर्षि सम्यग् दर्शन कहते है। सम्यग् दर्शन का विवेचन करते हुए पूज्य श्री फरमाते है कि मेरे प्रभु ने जो प्ररूपित किया है, वो ही सत्य है। वहीं निशंक है वहीं मेरा प्राण है और आधार है ऐसी दृढ़ भावना जब मन में ही जाये उसे सम्यग् दर्शन कहते है, समकिती आत्मा कहते है।
सम्यग् दर्शन तो अक्षय सुख, अव्याबाध सुख, अनंत सुख का स्थान ऐसे पंचम गति का बीज है। इसके तीन प्रकार है क्षायोपशमिक सम्यक्त्व, उपशम सम्यक्त्व और क्षायिक सम्यक्त्व! अनंतानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ तथा सम्यक्त्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय तथा मिश्र मोहनीय इन सात कर्म प्रकृतियों के नाश से, घात से सम्यक्त्व की दिव्य प्रभा प्रगट होती है। उपशम सम्यक्त्व यानि उपरोक्त की दिव्य प्रभा प्रगट होती है। उपशम सम्यक्त्व यानि उपरोक्त सात कर्म प्रकृति का सर्वथा नाश नहीं लेकिन उपशम करने से प्राप्त होता है। क्षायोपशमिक सम्यक्त्व यानि सात कर्म प्रकृति में से कुछ क्षय (नष्ट) किये हो और कुछ उपशम किये हो। क्षायिक सम्यक्त्व यानि सातों कर्म प्रकृति का क्षय करने से जो निर्मल सम्यक्त्व प्राप्त होता है। सड़सठ बोल से अलंकृत ऐसे दर्शन पद बिना चरित्र का संपूर्ण फल नहीं मिलता। ऐसे महान सम्यक्त्व की प्राप्ति के पश्चात् ही कोई भी जीव के भवों की गिनती प्रारंभ होती है। प्रभु वीर के भी सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् सत्तीवीस भव हुए। ऐसे निर्मल सम्यक्त्व को धारण करने वाली प्रभु वीर के शासन में एक सुप्रसिद्ध श्राविका हो चुकी जिनका नाम है सुलसा श्राविका।
प्रभु के वचनों के प्रति, प्रभु के प्रति जो उसकी अंतर की श्रद्धा थी वह अकल्पनीय है। प्रभु के आगमन के संदेश मात्र से उसका रोम-रोम क्या समस्त आत्म प्रदेश झूम उठते। अंबड परिव्राजक को जब प्रभु ने सुलसा श्राविका को धर्मलाभ कहलाया तो वह भी सोच में पड़ गया कि ऐसा क्या होगा सुलसा में? उसकी परीक्षा करने के लिए अंबड परिव्राजक ने ब्रम्हा शिव, विष्णु, प्रभु वीर आदि के रूप धारण करके उसे चलित करने का प्रयास किया किंतु वह निष्फल  रहा। अंत में उसे यह पता चला कि सुलसा का सम्यक्त्व ही इतना दृढ़ है तो प्रभु उसे धर्मलाभ कहलायेंगे ही ना। प्रभु के वचनों पे अत्यंत श्रद्धा रखने वाले आत्माओ का अवश्य उद्धार होता ही है। ऐसे शुद्ध सम्यक्त्व की प्राप्ति हमें भी शीघ्र हो उसे हेतु से दर्शन पद की निर्मल आराधना करना! दुर्लभ ऐसे मनुष्य जीवन में सम्यक्त्व की प्राप्ति होना यानि सोने पे सुहागा! बस संसार के अनेक व्यक्यिों पे जैसे कि वकील, डॉक्टर, नाई, सी.ए आदि पर विश्वास कर कार्य करते हो वैसे ही उससे अनंत गुणा अधिक विश्वास प्रभु के वचनों पर एक बार तो करके देखो! उसे रोहिणिया चोर की तरह आप भी जीवन पर्यंत प्रभु के अनुरागी बन जाओगे।
बस सम्यक्त्व की शीघ्र प्राप्ति हो और शुद्ध सम्यक्त्व से शीघ्र आत्मा से परमात्मा बनें यही परमात्मा को प्रार्थना!