अहमदाबाद। हर चीज, हर क्रिया अधूरी है ज्ञान के बिना। जैसे पानी को शीतलता से अलग नहीं किया जा सकता, पुष्य को सुवास से भिन्न नहीं किया जा सकता, अग्नि को उसकी उष्णता से अलग नहीं किया जा सकता वैसे आत्मा को ज्ञान से अलग नहीं किया जा सकता। पानी की शीतला, पुष्पों में सुवास, अग्नि में उष्णता वो सब उनका स्वाभाविक गुण है, स्वभाव दशा है।
अनेक प्राचीन तीर्थोद्धारक, सर्वधर्म ग्रंथों का तपस्पर्शी ज्ञान संपादन करने वाले, सुप्रसिद्ध जैनाचार्य, गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने विशाल संख्या में उपस्थित धर्मानुसारागी श्रोताओं को संबोधित करते हुए फरमाया कि ज्ञान तो आत्मा का स्वाभाविक गुण है। अत: प्रत्येक आत्मा ज्ञान पिपासु होती है। राजा शायद अपने राज्य की प्रजा में पूजनीय होता है, नेता अपने राष्ट्र में सम्मान को प्राप्त करते है लेकिन विद्वान पंडित वर्ग समस्त जगत में पूजनीय होता है। भले ही उनके पास सत्ता नहीं हो लेकिन बड़े-बड़े सत्ताधीशों को झुका देने की अद्भुत शक्ति है ज्ञान में। अंधकार में जैसे प्रकाश की एक किरण मिल जाये तो मार्ग पे चल पाना सरल बन जाता है वैसे जीवन में अज्ञान रूपी अंधकार से इधर-ऊधर भटक रहे जीवों के लिए ज्ञान प्रकाश बनकर आता है। ज्ञान के एकावन भेद है। ज्ञान की तो समस्त विश्व में बहुत बोल-बाला है। विदेश में जब कोई जाता है तो वहां की स्थानिक भाषा नहीं आती हो और वहां कोई व्यक्ति आपको ठग नहीं सकता यदि आपके पास ज्ञान हो। इसलिए कहा गया है कि विदेश में ज्ञान ही मित्र बनकर साथ आता है।
ज्ञान के बिना तो मनुष्य पशु समान ही है। ज्ञान प्राप्ति के लिए उद्यम करना अनिवार्य है। ऐसा ही एक उदाहरण शास्त्रों में बताया है मास्तुष मुनि का। पूर्वभव में बहुत ज्ञानी थे। अनेक मुनि भगवंत शंका का समाधान करने उनके पास आते और उनके लघु भ्राता। जिनका क्षयोपशम अल्प था वे आराम से सो जाते एक दिन उन्हें आराम करने की प्रबल इच्छा हुई और वे सो गये। तभी कोई साधु महात्मा शंका पूछने आये और निद्रा भंग हुई। इसके उसको बहुत गुस्सा आया अत: उन्होंने मन में सोचा कि मेरे भाई को कितनी शांति। क्षयोपशम अल्प हो तो कितना फायदा है कम से कम सो तो सकते है। ऐसी सोच आई और ज्ञान के प्रति अरुचि प्रगटी उसका फल उन्हें इस भव में भोगना पड़ा। पूर्वभव में प्राप्त हुई तीव्र बुद्धि-क्षयोपशम के प्रति अरुचि की उस कारण से उन्हें इस भव में मंद क्षयोपशम प्राप्त हुआ। पूज्य गुरूदेव की कृपा से उत्तराध्ययन के जोग मुनिराज ने प्रारंभ किये और उसमें चतुर्थ अध्ययन पढ़ाने की अनुज्ञा तब ही मिलती है कि जब साधक मर्यादित समय में अध्ययन कंठस्थ करें नहीं हो तब तक आयंबिल ही करना पड़े। मुनिराज ने अपने गुरू महाराज से आशीर्वाद लेकर अध्ययन कंठस्थ करना प्रारंभ किया। संपूर्ण दिन बीत गया परंतु कुछ नहीं याद कर पाये। प्रबल पुरूषार्थ किया लेकिन महिनों तक वे इस अध्ययन को कंठस्थ ही नहीं कर पाये। फिर उन्होंने अपने गुरू महाराज को पूछा किया क्या करूं? गुरू महाराज ने कहा आजीवन आयंबिल तपपूर्वक मा रुष इन शब्दों को कंठस्थ करना प्रारंभ किया।
पूज्यश्री फरमाते हैं कि कर्म की गति न्यारी है पूर्वभव में ज्ञान का अभियान, ज्ञान की अरुचि उत्पन्न होने के कारण मा रुप जैसे सरल शब्द भी मुनिराज कंठस्थ नहीं कर पाये।
अत: ज्ञान की आराधना द्वारा अपने जीवन को धन्य-पुण्य बनाना है। ज्ञानी का बहुमान करना चाहिए। प्रत्येक वो व्यक्ति जिनसे छोटी से छोटी चीज सीखी हो वो अपने उपकारी ही है। अत: प्रत्येक शिक्षक का और ज्ञान का बहुमान कर पुण्य कमाये। ज्ञान आराधना से आत्मा को ध्यान बनाकर परमात्मा बनें।
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