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अहमदाबाद। सृष्टि पर एक भी ग्रेजुएट व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जिसने नर्सरी, एलकेजी या यूकेजी में पढ़ाई करके ही कालेज तक पहुंचते है। वैसे ही अरिहंत बनना हो, सिद्ध बनना हो चाहे आचार्य बनना हो या उपाध्याय बनना हो प्रत्येक आत्मा को चरित्र धर्म की आराधना करनी ही पड़ती है।
पाश्र्व पभा लब्ध प्रासाद, प्रभावक प्रवचनकार सुप्रसिद्ध जैनाचार्य गीतार्थ गच्छाधिपति प.पू.आ.देव राजयशसूरीश्वरजी म.सा. ने उपस्थित धर्मानुरागी आराधकों को संबोधित करते हुए फरमाया कि चारित्र धर्म की आराधना से मोक्ष मंजिल के दरवाजे खुलते हैं। चारित्र के दो भेद है देश विरति, सर्वविरति देश विरति अर्थात् सर्व से नहीं बल्कि आंशिक भी धर्म का संयोग और विराधना से वियोग। सर्वविरति यानि सर्व विराधनाओं से मुक्ति ऐसे सित्तेर भेद युक्त चारित्र पद की आराधना जो आत्मा करे वह धन्य होती है। शास्त्रकार भगवंत फरमाते है कि सर्वप्रथम कोई भी चीज के दर्शन होते है (सम्यग् दर्शन) यानि सामान्य बोध, फिर उसका ज्ञान होना यानि सम्यग् ज्ञान तथा उसके अनुरूप देखने और समझने के बाद उसका योग्य आचरण करना ही समझदारी है। मनुष्य ही केवल ऐसा जीव है जो देखकर समझकर उसके अनुरूप आचरण कर सके। देवलोक के देव सब कुछ समझते हुए भी आचरण नहीं कर सकते, व्रत ग्रहण नहीं कर सकते, तिर्यंच गति के पशु-पक्षियों के जीव भी व्रत ग्रहण नहीं करते तथा नरक के जीवों की भी यहीं दशा है। अर्थात् दुर्लभ ऐसे मनुष्य भव को प्राप्त कर व्रत-नियमादि द्वारा उसे अलंकृत करें।
पूज्यश्री फरमाते है चारित्र का एक अर्थ है कैरेटर ईलाची कुमार नटणी का नृत्य देख उसके रूप सौंदर्य और लावण्य पे मोहित हुए। इतने अच्छे नामी परिवार से होने पर भी उनका मन एक नटणी के रुप में फंसा हुआ था। मन में धून लग गई कि कैसे भी करके उसे हासिल करके ही रहना है। चाहे कुछ भी हो जाये। नट मंडली के स्वामि नटणी के पिता ने कहा कि यदि मेरी पुत्री से विवाह करना हो तो सर्वप्रथम हमारी कलाएं सीखनी पड़ेगी और उनका प्रदर्शन करना होगा। इतने उच्च कुल का पुत्र ऐसा कार्य करने तैयार हो गया। यही दृश्य (यानि नटणी के नाच का दृश्य) जब चल रहा था तब एक अत्यंत लावण्य युक्त युवा मुनिराज पभिनी स्त्री के हाथों गोचरी ग्रहण कर रहे थे परंतु उनकी नजर, उनकी दृष्टि केवल पात्र पे थी। आंख उठाकर देखा तक नहीं। ऐसे मुनिवरों के लिए मुख से शब्द निकल पड़ते है अहों! मुनिराया, धन्य! मुनिराया संयम जीवन का यह प्रभाव है, व्रतों का यह बल है और विरति के परिणामों का यह प्रत्यक्ष उदाहरण है।
अंग्रेजी में एक कहावत भी है-
ढ्ढद्घ 2द्गड्डद्यह्लद्ध द्बह्य द्यशह्यह्ल ठ्ठशह्लद्धद्बठ्ठद्द द्बह्य द्यशह्यह्ल, 
ढ्ढद्घ द्धद्गड्डद्यह्लद्ध द्बह्य द्यशह्यह्ल ह्यशद्वद्गह्लद्धद्बठ्ठद्द द्बह्य द्यशह्यह्ल, 
क्चह्वह्ल ढ्ढद्घ ष्द्धड्डह्म्ड्डष्ह्लद्गह्म् द्बह्य द्यशह्यह्ल द्ग1द्गह्म्4ह्लद्धद्बठ्ठद्द द्बह्य द्यशह्यह्ल..
अर्थात् खोया हआ धन पुन: प्राप्त किया जा सकता है अत: उसका पछतावा करने की कोई आवश्यकता नहीं। जिसकी सहत खराब हुई हो उसने अपने जीवन में कुछ खोया है
लेकिन जिसने चारित्र खोया उसने सब कुछ खो दिया अत: बहुत संभलके चलना। व्रत और नियम से ही तक व्रत पालन का बल प्राप्त होता है। अनेक चारित्रवाहन आत्माओं के दर्शन मात्र से आनंद एवं संतोष की अनुभूति होती है। संयमी आत्माओं जैसे व्रत पालन करने की क्षमता और किसी में नहीं। बस चारित्र पढ़ की आराधना द्वारा आत्मा को भावित बनाये और शीघ्र मोक्ष मंजिल को प्राप्त करे यही शुभ भावना।