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0 केंद्र ने कहा-मुस्लिमों ने इसे रोकने के ठोस कदम नहीं उठाए

नई दिल्ली। तीन तलाक कानून के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर याचिकाओं पर केंद्र सरकार ने सोमवार (19 अगस्त) को 433 पेज का जवाब दाखिल किया। केंद्र ने हलफनामे में कहा- तीन तलाक जैसी प्रथा शादी जैसी सामाजिक संस्था के लिए घातक है। यह न तो इस्लामी है और न ही कानूनी। तीन तलाक किसी एक महिला के साथ किया गया निजी अपराध नहीं, बल्कि सामाजिक अपराध है। यह महिलाओं के अधिकारों और शादी जैसी सामाजिक संस्था के खिलाफ है।

केंद्र ने कहा कि शीर्ष कोर्ट से इस प्रथा को असंवैधानिक घोषित किए जाने के बावजूद मुस्लिम समुदाय ने इसे खत्म करने के लिए ठोस कदम नहीं उठाए, इसलिए संसद ने मुस्लिम महिलाओं के अधिकार बचाने के लिए यह कानून बनाया।

केंद्र बोला- प्रथा मुस्लिम महिलाओं से भेदभाव करती है
केंद्र सरकार ने तीन तलाक कानून के बचाव में कहा- यह ऐसी प्रथा को गैर-जमानती अपराध बनाता है, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने ही मनमाना कहा था। यह प्रथा शादीशुदा मुस्लिम महिलाओं से भेदभाव करती है। केंद्र ने तर्क दिया कि यह कानून शादीशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए न्याय और समानता के अधिकार को सुनिश्चित करने में मदद करता है। इसके साथ ही यह गैर-भेदभाव और सशक्तिकरण के मौलिक अधिकार की रक्षा करने में भी मदद करता है।

जमीयत का दावा-कानून संविधान के खिलाफ है
सुप्रीम कोर्ट ने 22 अगस्त 2017 को तत्काल तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) असंवैधानिक घोषित किया था। वहीं, केंद्र सरकार ने 30 जुलाई 2019 को तीन तलाक के खिलाफ कानून बनाया था। इसमें तीन तलाक को अपराध घोषित करके 3 साल की सजा का प्रावधान किया गया। कानून के खिलाफ दो मुस्लिम संगठनों- जमीयत उलेमा-ए-हिंद और समस्त केरल जमीयतुल उलेमा ने याचिका लगाई थी। इसमें कानून को असंवैधानिक घोषित करने की मांग की गई है। याचिका में मुस्लिम संगठनों का दावा है कि एक धर्म में तलाक के तरीके को अपराध बताया गया है, जबकि अन्य धर्मों में शादी और तलाक सिविल लॉ के अंतर्गत आता है। यह आर्टिकल 15 के खिलाफ है।

तलाकशुदा मुस्लिम महिला गुजारे भत्ते की हकदार
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई को आदेश दिया कि तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं अपराध प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 125 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144) के तहत अपने पति से भरण-पोषण की हकदार हैं। इसके लिए वे याचिका दायर कर सकती हैं। जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की बेंच ने मोहम्मद अब्दुल समद की याचिका खारिज करते हुए आदेश दिया। बेंच ने कहा- यह फैसला हर धर्म की महिलाओं पर लागू होगा। मुस्लिम महिलाओं को भी गुजारा भत्ता पाने का उतना ही अधिकार है, जितना अन्य धर्म की महिलाओं को है।

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