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भारत-रूस 21वीं सालाना शिखर बैठक के लिए राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का दिल्ली आना स्पष्ट करता है कि मास्को की निगाह में भारत की क्या अहमियत है। रूसी राष्ट्रपति ने भारत को यूं ही एक परखा हुआ मित्र नहीं कहा है कि इस मित्रता ने पांच दशकों का अडिग सफर तय किया है। 9 अगस्त, 1971 को तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी व सोवियत नेता लियोनिड ब्रेझनेव ने इसकी नींव रखी थी और यह साल-दर-साल पुख्ता होती गई। यहां तक कि सोवियत संघ के विघटन के बाद भी जब दुनिया एकध्रुवीय हुई, उस दौर में भी नई दिल्ली और मास्को ने आपसी रिश्तों की चमक फीकी नहीं पडऩे दी और दोनों देशों की उत्तरोतर सरकारों ने अपने तमाम व्यावहारिक तकाजों को पूरा करते हुए और देशहित में नए रिश्तों को बुनते हुए एक-दूसरे की भावनाओं का हमेशा ख्याल रखा।
इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछले दशक में अमेरिका, खासकर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल और उनकी नीतियों के कारण वैश्विक मंचों पर वाशिंगटन की आभा मलिन पड़ी, तो वहीं चीन का प्रभाव बढ़ा। मगर साथ ही कई विकासशील देशों की चिंताएं गहराने लगीं, क्योंकि बीजिंग की विस्तारवादी भौगोलिक-आर्थिक नीतियों से ये मुल्क अपने लिए खतरा महसूस करने लगे। गलवान घाटी में हमने चीनी दुस्साहस का बदतर रूप तो देखा ही, संयुक्त राष्ट्र में इस्लामाबाद प्रायोजित प्रस्तावों को बार-बार उसे आगे बढ़ाते हुए भी देखा। और इन सभी मौकों पर रूस ने खुलकर भारत का साथ दिया। गौरतलब है कि अमेरिका के विरुद्ध रूस और चीन के संबंधों में अपेक्षाकृत नजदीकी बढऩे के बावजूद मास्को हमारे हक में मजबूती से खड़ा रहा है। रूस जानता है कि भारत भी मित्रता निभाने में उससे पीछे नहीं है।
मात्र छह घंटे की रूसी राष्ट्रपति की यात्रा के दौरान 28 समझौतों पर हुए हस्ताक्षर भी दोनों देशों के मजबूत संबंध की कहानी कहते हैं। खासकर रक्षा क्षेत्र में दोनों देशों के रिश्ते की मजबूती का अंदाजा इस बात से चल जाता हैै कि एस-400 मिसाइल प्रणाली के सौदे को लेकर अमेरिका, चीन, तुर्की सहित कई देशों की नाखुशी को दोनों देशों ने महत्व नहीं दिया। हालांकि, तालिबान के मामले में रूस शुरुआत में भ्रम का शिकार रहा और ऐसा लगा कि वह तालिबान सरकार को मान्यता देने को तैयार बैठा है, लेकिन जब भारत ने अपनी चिंताएं उसके सामने रखीं, तो मास्को ने अपनी अफगान नीति पर गौर किया। आज दोनों देशों की काबुल से एक ही मांग है कि तालिबान हुकूमत पहले समावेशी सरकार गठित करे और अपनी धरती से पड़ोसी देशों में आतंकवाद के निर्यात को रोकने की प्रतिबद्धता दिखाए। कश्मीर में पाकिस्तानी कुचक्र को तोडऩे के लिए अफगानिस्तान पर रूस का दबाव असरदार साबित हो सकता है। 
चीन और पाकिस्तान की कुटिल दोस्ती को देखते हुए अफगानिस्तान मामले में हमें मास्को के साथ की दरकार रहेगी। बल्कि चीन के साथ रिश्तों में आई खटास को दूर करने में भी रूसी सहयोग महत्वपूर्ण है। इसी तरह, वैश्विक मंचों पर अपने महत्व को फिर से हासिल करने के लिए रूस को हमारे साथ की जरूरत है।
 भारत दुनिया का एक विशाल और प्रतिष्ठित लोकतंत्र तो है ही, बड़ी अर्थव्यवस्था भी है, इसे कोई दरगुजर नहीं कर सकता।