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हालांकि यह तथ्य कोई नया नहीं है और न ही चौंकाता है. इससे पहले भी समय-समय पर अनेक राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट में यह तथ्य उजागर होता रहा है कि दुनियाभर में अमीर और गरीब के बीच भारी असमानता है। कोरोना ने इसे और बढ़ा दिया है। वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट हर साल अपनी रिपोर्ट जारी करती है, जिसमें नीति निर्धारकों को जानकारी दी जाती है कि उनके देश के विभिन्न तबकों की माली हालत कैसी है?
हाल में जारी उसकी रिपोर्ट में कहा गया है कि देश व दुनिया के लोगों के बीच असमानता की खाई और चौड़ी हो गयी है। यह किसी भी देश व समाज के लिए अच्छी खबर नहीं है। यह तथ्य सर्वविदित है कि आर्थिक असमानता के कारण समाज में असंतोष पनपता है। रिपोर्ट में बताया गया है कि दुनिया के 10 प्रतिशत लोगों के पास 76 प्रतिशत धन संपदा है। दुनिया के सबसे ज्यादा 34 प्रतिशत अमीर एशिया में रहते हैं। यूरोप में 21 फीसदी और अमेरिका में 18 प्रतिशत अमीर रहते हैं।
सबसे कम धनी एक प्रतिशत सब-सहारन अफ्रीका में रहते हैं। भारत भी इससे अछूता नहीं है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में भारी असमानता है और गरीब व अमीर के बीच खाई चौड़ी हुई है। आप अपने आसपास नजर दौड़ाएं, तो आपको यह फर्क स्पष्ट नजर आयेगा। वर्ल्ड इनइक्वलिटी रिपोर्ट के अनुसार पिछले 40 वर्षों में देश में चंद लोग तो अमीर होते चले गये, लेकिन अर्थव्यवस्था उस हिसाब से नहीं मजबूत हुई है। रिपोर्ट के अनुसार, देश में 10 फीसदी अमीरों के पास देश की कुल संपत्ति का 57 फीसदी है। देश की कुल कमाई में मध्य वर्ग का हिस्सा 29।5 प्रतिशत है। वहीं 10 फीसदी अमीर लोगों के हाथों में 33 प्रतिशत दौलत है। कमाई में सबसे अमीर एक प्रतिशत लोगों की 65 प्रतिशत हिस्सेदारी है। देश के युवाओं की सालाना कमाई औसतन 2 लाख 4 हजार 200 रुपये है, जबकि 50 फीसदी लोगों की औसत कमाई महज 53 हजार 610 रुपये है। भारत सबसे युवाओं का देश माना जा रहा है, लेकिन देश के 50 फीसदी युवाओं की मासिक आय पांच हजार रुपये से भी कम है। साफ नजर आ रहा है कि उदारीकरण व आर्थिक सुधार के फैसलों के बाद लोगों की आय में बढ़ोत्तरी तो हुई, लेकिन इसके साथ ही असमानता भी बढ़ती चली गयी। यह अफसोस की बात है कि आजादी के 75 साल बाद भी समाज में भारी आर्थिक असमानताएं हैं। बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं हों अथवा शिक्षा के अवसर, अब भी ये अमीरों के पक्ष में हैं। उदारवादी नीतियों का सबसे ज्यादा फायदा देश के एक फीसदी अमीर लोगों को हुआ है, जबकि गरीब व मध्य वर्ग की दशा में सुधार बेहद धीमा रहा है। यह वाकई चिंताजनक स्थिति है कि भारत दुनिया का सबसे ज्यादा आर्थिक असमानता वाला देश बन गया है। पुराना अनुभव रहा है कि ऐसी असमानता समाज में असंतोष को जन्म देती है। यह सही है कि आर्थिक असमानता की स्थिति केवल भारत में ही नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में है। जब देश में आर्थिक सुधारों का दौर आया, तो कहा गया था कि इसका लाभ गरीब तबके को भी मिलेगा, लेकिन धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता जा रहा है कि आर्थिक सुधारों की मलाई अमीर तबके के हाथ लगी है। 
मध्य वर्ग और गरीब तबके तक इसका अपेक्षित लाभ नहीं पहुंचा है। कुछ समय पहले मशहूर पत्रिका फोर्ब्स ने दुनिया के अरबपतियों की सूची जारी की थी।

उस दौरान कोरोना का दूसरा दौर चरम पर था और पूरी दुनिया उससे जूझ रही थी। लोगों की नौकरियां चली गयी थीं और छोटे काम धंधे ठप पड़ गये थे, लेकिन इस दौर में दुनियाभर में अरबपतियों की संख्या बढ़ रही थी। फोर्ब्स के संपादक ए डोलान का कहना था कि महामारी के बावजूद दुनिया के सबसे रईस लोगों के लिए यह साल एक रिकॉर्ड की तरह रहा है।

इस दौर में उनकी दौलत में पांच खरब डॉलर का इजाफा हुआ है और नये अरबपतियों की संख्या में अभूतपूर्व वृद्धि देखी गयी है। फोर्ब्स की दुनियाभर के अरबपतियों की सूची में 2755 लोग शामिल किये गये हैं, जो पिछले साल की संख्या से 600 अधिक हैं। इनमें से 86 फीसदी लोगों ने कोरोना महामारी के दौर में अपनी आर्थिक हैसियत को और बेहतर किया है। दुनिया में सबसे ज्यादा 724 अरबपति अमेरिका में हैं, जबकि पिछले साल अमेरिका में अरबपतियों की संख्या 614 थी।

एक साल में इस सूची में 110 नये लोग जुड़ गये हैं। दूसरे स्थान पर चीन है, जहां अरबपतियों की संख्या अब 698 हो गयी है, जो पिछले साल 456 थी। भारत भी कोई पीछे नहीं है और यह तीसरा सबसे अधिक अरबपतियों वाला देश है।

इस साल इनकी संख्या 140 हो गयी है, जबकि पिछले साल भारत में अरबपतियों की संख्या 102 थी। दूसरी ओर दुनिया में गरीबों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हुई है। विश्व बैंक का अनुमान है कि कोरोना महामारी के दौरान दुनियाभर में 11।5 करोड़ लोग अत्यंत निर्धन की श्रेणी में पहुंच गये है। ये आंकड़े भी इस बात को रेखांकित करते हैं कि दुनियाभर में आय व संपत्ति का वितरण पूरी तरह से असंतुलित है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) ने कुछ समय पहले अखिल भारतीय ऋण और निवेश सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की थी। उसके अनुसार देश के 10 प्रतिशत शहरी परिवारों के पास औसतन 1।5 करोड़ रुपये की संपत्ति है, जबकि निचले वर्ग के परिवारों के पास औसतन केवल 2,000 रुपये की संपत्ति है। सर्वे के अनुसार ग्रामीण इलाकों में स्थिति शहरों की तुलना में थोड़ी बेहतर है। ग्रामीण इलाकों में शीर्ष 10 फीसदी परिवारों के पास औसतन 81।17 लाख रुपये की संपत्ति है, जबकि कमजोर तबके के पास औसतन केवल 41 हजार रुपये की संपत्ति है।

यह सर्वे जनवरी-दिसंबर, 2019 के बीच किया गया था। इस ऋण और निवेश सर्वेक्षण का मुख्य उद्देश्य परिवारों की संपत्ति और देनदारियों को लेकर बुनियादी तथ्य जुटाना था। एनएसओ सर्वे से जो चौंकाने वाली बात सामने आयी कि खेती-बाड़ी करने वाले आधे से अधिक परिवार कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। सर्वे के अनुसार 2019 में 50 फीसदी से अधिक किसान परिवारों पर कर्ज था।

उन पर प्रति परिवार औसतन 74,121 रुपये कर्ज था। सर्वे में जानकारी दी गयी है कि कर्ज में से केवल 69।6 फीसदी बैंक, सहकारी समितियों और सरकारी एजेंसियों जैसे संस्थागत स्रोतों से लिया गया था, जबकि 20।5 फीसदी कर्ज सूदखोरों से लिया गया था। इसके अनुसार कुल कर्ज में से 57।5 फीसदी ऋण कृषि उद्देश्य से लिये गये थे। सर्वे के अनुसार फसल के दौरान प्रति कृषि परिवार की औसत मासिक आय 10,218 रुपये थी। इसमें से मजदूरी से प्राप्त प्रति परिवार औसत आय 4,063 रुपये, फसल उत्पादन से 3,798 रुपये, पशुपालन से 1,582 रुपये, गैर-कृषि व्यवसाय से 641 रुपये और भूमि पट्टे से 134 रुपये की आय हुई थी।

सर्वे से पता चलता है कि 83।5 फीसदी ग्रामीण परिवार के पास एक हेक्टेयर से कम जमीन है, जबकि केवल 0।2 फीसदी के पास 10 हेक्टेयर से अधिक जमीन थी। ये सारे तथ्य इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं कि देश के नीति निर्धारकों को इस विषय में गंभीरता से विचार करना होगा कि अमीर और गरीबी की बढ़ती खाई को कैसे कम किया जा सकता है। आर्थिक विषमता में बढ़ोतरी देश व समाज के हित में नहीं है।