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गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि मनुष्य अपना कर्म करते हुए ही जीवन में संसिद्धि को प्राप्त करता है। यही ज्ञानयोग और भक्तियोग का भी आधार है। अत सुख-दुख लाभ-हानि एवं यश-अपयश के हेतु स्वयं मनुष्य के कर्म हैं।
वैदिक मान्यताओं के अनुसार 'एकोहम् बहुस्यामÓ की अवधारणा के साथ परमात्मा ने इस जगत में जड़ और चेतन दो प्रकार की सृष्टि की। इसके माध्यम से जगत में सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् की स्थापना करना परमात्मा का मुख्य उद्देश्य था। जीवों की सृष्टि के क्रम में उसने सबका मंगल करने के लिए मनुष्य को बुद्धि-विवेक से अलंकृत कर जीवों में श्रेष्ठतर स्थान प्रदान किया। इसीलिए उस पर अन्य प्राणियों के योगक्षेम का भार भी था। इसके साथ ही इस सरलतम सिद्धांत का प्रतिपादन किया कि मनुष्य के कर्म ही उसके सुख-दुख का कारण बनेंगे। इसमें उसका कोई हस्तक्षेप नहीं होगा। वह तटस्थ भाव से केवल साक्षी और द्रष्टा रहेगा। सभी भारतीय दर्शन और धर्मशास्त्र इसी अवधारणा को मानते हैं। इसीलिए शास्त्रों में ईश्वर को सर्वत्र निर्विकार, निर्लिप्त, साक्षी और द्रष्टा कहा गया है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं कि मनुष्य अपना कर्म करते हुए ही जीवन में संसिद्धि को प्राप्त करता है। यही ज्ञानयोग और भक्तियोग का भी आधार है। अत: सुख-दुख, लाभ-हानि एवं यश-अपयश के हेतु स्वयं मनुष्य के कर्म हैं। हाल के वर्षो में अनुभव किया गया है कि पूरी दुनिया में न केवल मानव जाति अपितु अन्यान्य जीवों सहित संपूर्ण पर्यावरण के लिए संकट खड़ा हुआ है। जीवों की कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं। नदियां प्रदूषण का दंश ङोल रही हैं तो दुनिया जलवायु परिवर्तन के खतरों से दो-चार हो रही है। पर्यावरण असंतुलन से प्रसूत भीषण आपदाओं से आम जनजीवन संत्रस्त है। कोरोना जैसे वायरस आए दिन मानव जीवन को चुनौती दे रहे हैं। यह सब प्रकृति के कार्यो में अनावश्यक हस्तक्षेप तथा मनुष्य की स्वच्छंद जीवनशैली का परिणाम है। वस्तुत: हर नया साल हमारे लिए नई चुनौतियां भी लाता है और भूल सुधार के नए अवसर भी। हमें जीवमात्र के कल्याणार्थ इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। सत् संकल्प के साथ कर्म पथ पर अग्रसर हों।