दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में भी बच्चों पर टीके के परीक्षण का काम शुरू हो गया है। इसमें दो से अठारह साल तक के बच्चों पर स्वदेशी टीके कोवैक्सीन का परीक्षण होगा। इससे पहले पटना के एम्स में यह परीक्षण शुरू हो चुका है। दवा कंपनी जायडस कैडिला भी अपने स्वदेशी टीके का तीसरे चरण का परीक्षण पूरा कर चुकी है। इसमें बड़ों के साथ ही बारह से अठारह साल के बच्चों को भी शामिल किया गया था। इस बात से कोई इनकार नहीं करेगा कि बच्चों पर महामारी का खतरा कहीं ज्यादा बड़ा है। इसीलिए टीके बनाने के लिए कंपनियां युद्धस्तर पर जुटी हैं। महामारी से बचाव के लिए देश में टीकाकरण चल ही रहा है।
पहले चरण में चिकित्साकर्मियों और अन्य कर्मियों जैसे पुलिस और सुरक्षाबल के जवानों को इसमें शामिल किया गया था। फिर साठ साल से ऊपर वालों को इसमें जोड़ा गया। और उसके बाद पैंतालीस से साठ साल के लोग इस अभियान में शामिल किए गए। एक मई से अठारह से पैंतालीस साल वालों को भी इस अभियान का हिस्सा बनाया जा चुका है। लेकिन एक बड़ा और सबसे महत्त्वपूर्ण वर्ग बच्चों का बचा है। इसीलिए बच्चों के टीकाकरण का काम उतना ही महत्त्वपूर्ण और जरूरी है, जितना दूसरे आयु वर्ग वालों का। दूसरी लहर में जैसी तबाही हुई, उसका सबक यही है कि पूरी आबादी को टीका जल्द से जल्द लग जाए। इस बात पर लगातार गौर करने की जरूरत है कि दूसरी लहर में रोजाना संक्रमण और मौतों के आंकड़ों ने सारे रेकार्ड तोड़ डाले। महामारी का खतरा अभी जस का तस है। फिलहाल बस संक्रमण की दर ही घटी है। दूसरी लहर में भी बच्चों के काफी मामले देखने को मिले। लेकिन गंभीर स्थिति वाले मामलों की संख्या कम रही।
फिर, देशी-विदेशी विशेषज्ञों ने यह कह कर चिंता बढ़ा दी कि अक्तूबर-नवंबर तक तीसरी लहर भी आ सकती है। और यह बच्चों के लिए खतरनाक होगी। जाहिर है, बच्चों को बचाना अब पहली प्राथमिकता हो गई है। इसलिए ज्यादातर राज्यों ने अभी से ऐसे इंतजाम शुरू कर दिए हैं कि अगर तीसरी लहर में बच्चे संक्रमण की चपेट में आते हैं तो उन्हें तत्काल इलाज मिल सके। बच्चों का मामला ज्यादा ही संवेदनशील है। दो से छह साल तक के बच्चे तो अपनी तकलीफ बयां भी नहीं कर पाते। परीक्षणों और इलाज की जटिल प्रक्रियाओं के दौर से गुजरना बच्चों के लिए कितना पीड़ादायक होता होगा, यह कल्पना से परे है।
बच्चों पर महामारी का खतरा इसलिए भी बना हुआ है कि अगर घर में किसी एक या उससे ज्यादा सदस्य संक्रमण से ग्रस्त हो जाएं तो बच्चों को इसकी जद में आते देर नहीं लगती। दूसरी लहर में ऐसे मामले देखे भी गए। जाहिर है, अगर बच्चों को टीका लगा होगा तो काफी हद तक बचाव रहेगा।लेकिन यहां पर भी एक मुश्किल यह है कि भारत अभी टीकों की कमी से जूझ रहा है। कंपनियां एकदम से मांग पूरी कर पाने की स्थिति में हैं नहीं। फिर जैसे बड़ों के लिए प्राथमिकता समूह तय किए गए, उस तरह बच्चों में तो कोई समूह नहीं बनाया जा सकता। बारह से अठारह साल के किशोरों की संख्या चौदह से पंद्रह करोड़ के बीच बैठती है।
यानी बच्चों के लिए अलग से तीस करोड़ टीके और चाहिए। इसलिए दो से अठारह साल के बच्चों के लिए पर्याप्त टीकों का उत्पादन जरूरी है। वरना टीके के लिए लोग आज जैसे धक्के खा रहे हैं, तब लोग अपने बच्चों को लेकर परेशान होते दिखेंगे।