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पिछले तीन महीनों से भारतीय वस्तुओं के निर्यात का आंकड़ा उत्साहवर्द्धक रहा है. मार्च, अप्रैल और मई में क्रमश: 34, 30 और 32 अरब डॉलर मूल्य का निर्यात हुआ है। ये आंकड़े पिछले साल के इन तीन महीनों की तुलना में बड़ी छलांग हैं। इसकी मुख्य वजह यह है कि पिछले साल मार्च में पूरी दुनिया लॉकडाउन में चली गयी थी और सामानों की आवाजाही में भारी कमी आयी थी। इसलिए वर्तमान स्थिति की तुलना कोरोना महामारी के दौर के पहले से करना उचित होगा।
दिलचस्प है कि लगभग आठ प्रतिशत बढ़ोतरी के साथ मई, 2021 के निर्यात आंकड़े मई, 2019 से भी अधिक हैं। यदि यह गति जारी रही, तो वस्तुओं के निर्यात के लिए अच्छी स्थिति होगी, जो आर्थिक वृद्धि का एक अहम आधार है। घरेलू मांग की पूर्ति से कहीं अधिक शोधन क्षमता होने के कारण भारत शोधित पेट्रोल और डीजल का बड़ा निर्यातक है। निर्यात होनेवाली वस्तुओं में लगभग 20 फीसदी हिस्सा शोधित पेट्रोल और डीजल का है। इस निर्यात का एक बड़ा अहम हिस्सा- कच्चा तेल- पूरी तरह आयात पर निर्भर है।
यही स्थिति जवाहरात और आभूषण के मामले में भी है। बिना कटे हुए हीरे व अन्य कीमती पत्थरों का आयात होता है और उनकी कटाई कर व आभूषण बना कर निर्यात किया जाता है। भारत इन वस्तुओं का बड़ा निर्यातक है और पेट्रोलियम उत्पादों की तरह इनसे भी डॉलर अर्जित किया जाता है, लेकिन ये दोनों तरह के निर्यात वैश्विक अर्थव्यवस्था की स्थिति पर निर्भर करते हैं।
उदाहरण के लिए, आर्थिक गिरावट के दौरान कीमती पत्थरों और आभूषणों की मांग स्वाभाविक रूप से घटेगी, क्योंकि उपभोक्ताओं में उत्साह नहीं होगा, लेकिन स्टॉक मार्केट में उछाल के साथ अगर धन बढ़ रहा है, तो विलासिता की वस्तुओं की मांग भी बढ़ेगी।
बहरहाल, अगर हम इन दो तरह के निर्यातों को अलग भी कर दें, तब भी निर्यात में देश का प्रदर्शन बढिय़ा है। यह अनाज, जूट और अन्य रेशों जैसे कृषि उत्पादों, इलेक्ट्रॉनिक सामानों, रसायनों, लौह अयस्क, धातु उत्पादों तथा वस्त्रों के कारण है। निश्चित रूप से अत्यधिक संभावनाओं और वृद्धि वाले क्षेत्रों को समझने के लिए आंकड़ों का गहन अध्ययन जरूरी है। आर्थिक बढ़ोतरी के ईंजन को चार कारकों से आगे बढ़ाया जा सकता है।
ये चार कारक हैं- उपभोक्ता, निवेश (मसलन, नयी फैक्ट्रियों के बनने से आनेवाली मांग), सरकारी खर्च (राजमार्गों या ग्रामीण रोजगार योजना जैसी पहलों पर) तथा निर्यात (यानी भारतीय वस्तुओं व सेवाओं पर विदेशियों द्वारा खर्च)। वर्तमान में जब देश महामारी की दूसरी लहर का सामना कर रहा है, उपभोक्ता और निवेश की भावनाएं कमजोर हैं। यह बात रिजर्व बैंक की हालिया रिपोर्ट और विभिन्न औद्योगिक संगठनों के सर्वेक्षणों से भी इंगित होती है।

निवेश मांग को समझने का एक जरिया बैंक ऋण में वृद्धि है, जो महज पांच फीसदी है। आठ फीसदी के स्वस्थ आर्थिक वृद्धि के लिए इस ऋण में लगभग 25 फीसदी की बढ़त होनी चाहिए। निश्चित रूप से, 'भावनाÓ जितनी आर्थिकी का मामला है, उतना ही मनोविज्ञान से जुड़ा है। नीति, वित्तीय प्रोत्साहन, टीकाकरण की प्रगति, अच्छा मॉनसून तथा इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च में बढ़त के सही जोड़ से भावना तुरंत सकारात्मक भी हो सकती है।

भारतीय स्टॉक बाजार में माहौल उत्साहपूर्ण है और हर सप्ताह बाजार नयी ऊंचाई छू रहा है। संभव है कि स्टॉक मार्केट आज से सालभर बाद एक मजबूत अर्थव्यवस्था की संभावना देख रहा है, लेकिन शेयर बाजार में बढ़त रिजर्व बैंक की उदार मौद्रिक नीति की वजह से उपलब्ध अत्यधिक नगदी के कारण भी है। नगदी की आपूर्ति में इतनी तरलता और बढ़ोतरी से स्टॉक बढऩा निश्चित है। यह उल्लेख करना महत्वपूर्ण है कि जब स्टॉक मार्केट बढ़ता है, तो यह उन लोगों की संपत्ति में वृद्धि करता है, जो आय के पैमाने पर ऊपर हैं। इससे विषमता की खाई और बढ़ सकती है, क्योंकि आर्थिक गिरावट से गरीबों की आमदनी अभी भी रुकी हुई है।

देश के बाहर स्थिति बिल्कुल दूसरी है। दुनिया की दो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं- अमेरिका और चीन- में बहुत मजबूत बढ़त है। यह दो कारणों से है। एक है वैक्सीन आशावाद। टीकाकरण की गति तेज है और आबादी के बड़े हिस्से को खुराकें दी जा चुकी हैं। दूसरी वजह ठोस वित्तीय प्रोत्साहन है। पिछले साल अमेरिका में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 15 फीसदी हिस्सा प्रोत्साहन में दिया गया था और इस साल उससे भी अधिक राशि देने की आशा है।

चीन में भी ऐसा बड़ा प्रोत्साहन दिया गया है, लेकिन उसकी मंदी उतनी गंभीर नहीं थी। इन कारकों से वैश्विक आर्थिकी में लगभग 35 ट्रिलियन डॉलर हिस्सेदारी की ये दो अर्थव्यवस्थाएं कम-से-कम पांच फीसदी या इससे अधिक की दर से बढ़ेंगी। भारत का आर्थिक आकार इसका दसवां हिस्सा है। सो, अमेरिका और चीन को मिलाकर पांच फीसदी वृद्धि दर भारत के 50 फीसदी वृद्धि दर के बराबर है। यह उच्च आधार का असर है। यह वहां की समेकित मांग का पैमाना है।

अचरज नहीं कि आपूर्ति में बाधाएं दिखने लगी हैं। लागत बढ़ रही है। ब्लूमबर्ग सामग्री मूल्य सूचकांक पिछले साल से करीब 60 फीसदी ऊपर है। चीन की मांग के कारण लौह अयस्क की कीमतें करीब 250 डॉलर हो चुकी हैं। एक टन इस्पात का दाम 1000 डॉलर पहुंच गया, जो अभूतपूर्व है। विश्व व्यापार की गति को जहाजरानी के खर्च में देखा जा सकता है। थोक ढुलाई मूल्य बीते साल से 700 फीसदी अधिक हैं।

सवाल यह है कि क्या भारत इस निर्यात संभावना का लाभ उठाने के लिए तैयार है। यदि वैश्विक वस्तु व्यापार में भारत का हिस्सा अभी के 1।5 फीसदी से बढ़कर तीन फीसदी भी हो जाता है, जो तुरंत हासिल किया जा सकता है, तो हमारा सालाना निर्यात करीब 600 अरब डॉलर का हो जायेगा। इसे साकार करने के लिए निर्यात को बढ़ावा देनेवाली योजनाओं को लागू करना होगा।

निर्यात से जुड़े करों व शुल्कों की वापसी की योजना में छह माह की देरी हो चुकी है। वस्तु एवं सेवाकर (जीएसटी) के रिफंड में देरी अब भी समस्या है। आयात शुल्क अधिक होने से वैसे निर्यातकों को परेशानी हो रही है, जो आयातित तत्वों का इस्तेमाल करते हैं। अधिक विनिमय दर भी एक अवरोध है। हमें आक्रामकता के साथ स्वागत करना चाहिए और भारतीय भूमि पर वैश्विक मूल्य शृंखला स्थापित करनी चाहिए। इन सुधारों के अभाव में हम फिर एक बार अवसर से चूक जायेंगे। हमें पड़ोसी बांग्लादेश से सीखना चाहिए, जो इस अवसर की सवारी का आनंद उठा रहा है।