अगर कुछ मित्रों की मदद से प्रीता मुझे 24 अप्रैल को अस्पताल नहीं ले जातीं, तो आज मैं इन पंक्तियों को नहीं लिख रहा होता। यहां तक कि कोविड के आईसीयू वार्ड में जब मेरे फेफड़ों को नॉन-इनवेसिव वेंटिलेशन मशीन के सहारे ऑक्सीजन दी जा रही थी, इंट्रा-वेनस पाइप से भांति-भांति की दवाएं मेरे शरीर में पहुंचाई जा रही थीं, हृदय को जांचने व ऑक्सीजन स्तर का पता लगाने के लिए तमाम तरह की तारों का जाल मेरे इर्द-गिर्द पसरा था, तब मुझे यही लग रहा था कि मैं बेहद भाग्यशाली इंसान हूं और मुझे विशेष अधिकार हासिल है। वह देश के बेहतरीन अस्पतालों में से एक है। वहां ऑक्सीजन या जीवन-रक्षक दवाओं की कोई कमी नहीं थी। डॉक्टरों की एक योग्य टीम मेरा इलाज कर रही थी। यह उस समय की बात है, जब देश के खराब हालात मीडिया की सुर्खियों में थे। हर जरूरी चीज की बेहद कमी हो चली थी, फिर चाहे वे टीके हों या अस्पताल के बिस्तर, एंबुलेंस, वेंटिलेटर, कॉन्सेंट्रेटर, दवाएं या ऑक्सीजन। गंभीर मरीजों की जान तो इसलिए भी जा रही थी, क्योंकि उन्हें सांस लेने और जिंदा रहने के लिए जरूरी ऑक्सीजन नहीं मिल पा रही थी। अस्पताल के कोविड वार्ड में, जिसे मैं एकांतवास कह सकता हूं, मुझे यह सोचने के लिए काफी वक्त मिला कि आखिर अपने यहां चूक कहां हुई? भारत यह दु:स्वप्न जीने को क्यों अभिशप्त हुआ? और सबसे महत्वपूर्ण सवाल कि कोरोना की अगली लहर का सामना करने के लिए क्या किया जाना चाहिए?
निस्संदेह, कोरोना की दोनों लहरों के बीच हमें तैयारी करने का पूरा समय मिला था। मगर, पहली लहर के शांत होते ही हम आत्ममुग्ध हो गए। विशेषज्ञों की चेतावनियों को दरकिनार किया जाने लगा। खुद प्रधानमंत्री ने दावोस में विजयी भाव से एलान किया कि भारत ने कोविड की जंग जीत ली है। लेकिन इसके तुरंत बाद, दूसरी लहर एक भयानक सूनामी की तरह आई, जिसमें पहली लहर की तुलना में चार गुना अधिक तेजी से संक्रमण फैला। नतीजतन, बहुत अधिक मौतें हुईं। जहां दिल्ली के अस्पतालों में बिस्तर और ऑक्सीजन की भारी कमी थी, तो वहीं उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों के छोटे शहरों व गांवों में नाममात्र की स्वास्थ्य सुविधाओं का लोगों ने काफी खामियाजा भुगता। इसके कारण, गंगा में बहती लाशें, तटों पर अनगिनत जलती चिताएं और उथली समाधियां मीडिया की खबरों में छा गईं।
नाकाफी प्रशासनिक तैयारी और बदहाल स्वास्थ्य तंत्र के कारण दूसरी लहर ने सरकार की बड़ी विफलता की ओर विश्व समुदाय का ध्यान खींचा। हालांकि, देखा जाए, तो सिर्फ सरकार विफल नहीं हुई, बल्कि आम जनता ने भी अपना नुकसान खुद किया। कोविड-उपयुक्त व्यवहार को न सिर्फ व्यापक तौर पर नजरंदाज किया गया, बल्कि भीड़-भाड़ से बचने, मास्क पहनने और शारीरिक दूरी बरतने में भी कोताही बरती गई। अगर लोगों ने इस पर ध्यान दिया होता, तो संभव है कि वायरस का इस कदर प्रसार नहीं होता।
बहरहाल, दोषारोपण के बजाय अब यह सुनिश्चित करना उचित होगा कि ऐसी गलती फिर से न हो, यानी तीसरी लहर के खिलाफ हम पूरी तरह से तैयार रहें। महामारी के प्रसार को रोकने के साथ-साथ संक्रमितों के इलाज का हमारे पास अब पर्याप्त अनुभव है। अगली किसी लहर से निपटने की रणनीति में यह अनुभव कारगर हो सकता है। बढ़ते संक्रमण को थामने के लिए टीकाकरण सबसे जरूरी उपाय है। सरकार ने हर दिन एक करोड़ लोगों को टीका लगाने का लक्ष्य रखा है, जो असंभव नहीं है। अप्रैल में ही, जब तक हमारे पास टीकों की कमी न थी, रोजाना करीब 30 लाख लोगों को टीका लगाया जा रहा था।
लिहाजा, सवाल यह है कि क्या सरकार प्रतिदिन एक करोड़ टीकाकरण का लक्ष्य पाने के लिए टीकों की पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित कर सकती है? रही बात कोविड मरीजों के इलाज की, तो हमें ऑक्सीजन की आपूर्ति, अस्पतालों में बिस्तर, वेंटिलेटर और अन्य उपकरणों की उपलब्धता के साथ-साथ जरूरी दवाओं की आपूर्ति बढ़ाने की भी दरकार है।
अगर हमारे बड़े शहर और कस्बे अभी से तैयारी शुरू कर दें, तो उनके पास इतना अनुभव है कि वे कोरोना की अगली लहर का बेहतर ढंग से सामना कर सकते हैं। इसलिए, चुनौती ग्रामीण इलाकों में कहीं अधिक है। वे स्वास्थ्य सेवाओं के लिए पूरी तरह से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) पर निर्भर हैं। टीकों के लिए कोल्ड चेन की जिम्मेदारी भी इन्हीं केंद्रों के जिम्मे है। पर जन-स्वास्थ्य प्रणाली की यह नींव कई राज्यों में दरक चुकी है। हालांकि, ऐसी खबरें भी हैं कि कुछ नगरपालिका प्राधिकरण और जिला प्रशासन अपने यहां अस्पतालों में बिस्तरों की क्षमता तेजी से बढ़ा रहे हैं। यहां तक कि वे अपने स्तर पर ऑक्सीजन का उत्पादन भी करने लगे हैं। लिहाजा, ऐसी कोई वजह नहीं है कि हम इस तरह के प्रयासों को पूरे देश में बढ़ा या दोहरा न सकें। मगर, इसके लिए प्रभावी समन्वय व नेतृत्व की दरकार होगी। शायद नीति आयोग एक समन्वय समिति बना सकता है, जिसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञ और अनुभवी प्रशासक शामिल हों और जो राज्य स्तरीय समितियों के साथ मिलकर इन कोशिशों को व्यापक रूप दे। बेशक, इस तरह की समन्वय समिति कुछ महीनों के भीतर ही राष्ट्रव्यापी पीएचसी नेटवर्क को पूरी तरह से दुरुस्त नहीं कर सकती, लेकिन उस दिशा में बड़े पैमाने पर संसाधनों को आगे बढ़ाने के लिए यह कम से कम नीतिगत पहल तो कर ही सकती है। इससे विशेषकर ग्रामीण भारत में तीसरी लहर की मौत व तबाही को रोकने में मदद मिल सकती है। नीतिगत मोर्चे पर पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम का एक बड़ा योगदान पुरा (पीयूआरए) था, यानी ग्रामीण इलाकों में शहरी सुविधाएं मुहैया कराना। दुर्भाग्य से, राष्ट्रपति भवन से उनकी विदाई के बाद इसे भुला दिया गया। इस अवधारणा के माध्यम से राष्ट्रपति कलाम देश के शहरी व ग्रामीण इलाकों के बीच की बुनियादी असमानताओं को दूर करना चाहते थे। कोरोना की तीसरी लहर को बेअसर करने के लिए बड़े पैमाने पर ग्रामीण अभियान की शुरुआत करके हम इस असमानता को दूर करने की दिशा में भी नीतिगत कदम उठा सकते हैं।
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