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राफेल सौदे को लेकर कांग्रेस एक बार फिर हमलावर मुद्रा में है, लेकिन इसमें संदेह है कि इससे उसे कुछ हासिल होगा, क्योंकि एक तो यह गड़े मुर्दे उखाडऩे जैसा है और दूसरे, इस मामले में सुप्रीम कोर्ट अपना यह निर्णय दे चुका है कि इस मामले में कहीं कोई विसंगति नहीं। यह ठीक है कि फ्रांस में इस सौदे में कथित भ्रष्टाचार को लेकर एक जांच शुरू हुई है, लेकिन किसी मामले की जांच शुरू होने का यह मतलब नहीं कि आरोपों की पुष्टि हो गई है। बेहतर होता कि कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी इस जांच के पूरा होने का इंतजार करते। जब तक फ्रांस में होने वाली जांच किसी नतीजे पर नहीं पहुंचती, तब तक भारत में उस पर किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का कोई मतलब नहीं। यह भी ध्यान रहे कि जिस गैर सरकारी संगठन की शिकायत पर यह जांच शुरू हुई है, वह पहले भी इस तरह की कोशिश करता रहा है। तथ्य यह भी है कि यह गैर सरकारी संगठन खुद भी कई आरोपों से घिरा है। कांग्रेस को यह भी स्मरण रखना चाहिए कि राफेल सौदे को तूल देकर ही उसने पिछला लोकसभा चुनाव लड़ा था और उसे मुंह की खानी पड़ी थी। कम से कम राहुल गांधी को तो यह अच्छी तरह याद होना चाहिए कि उन्होंने किस तरह देश भर में घूम-घूम कर चौकीदार चोर है का नारा प्रचारित किया था और उसके कैसे नतीजे खुद उन्हेंं और उनकी पार्टी को भुगतने पड़े थे? ऐसा लगता है कि कांग्रेस राफेल मामले में अपनी पुरानी भूल से कोई सबक सीखने के लिए तैयार नहीं। वह शायद यह भी समझने को तैयार नहीं कि इस मामले को बार-बार उछालने से उसे कोई राजनीतिक लाभ नहीं मिलने वाला।
यह समझ आता है कि कांग्रेस राफेल मामले में सुप्रीम कोर्ट में हुई उस सुनवाई को भूलना पसंद कर रही हो, जिसमें इन लड़ाकू विमानों की कीमत सील बंद लिफाफे में अदालत को सौंपी गई थी, लेकिन उसे अपने आरोपों की गंभीरता तो परखनी ही चाहिए। कांग्रेस एक ओर यह कह रही है कि राफेल विमानों को कहीं अधिक कीमत पर खरीदा गया और दूसरी ओर यह भी पूछ रही है कि आखिर 126 विमानों के बजाय केवल 36 विमान ही क्यों खरीदे गए? ऐसे सवाल पूछने के पहले कांग्रेस को यह सोचना चाहिए कि यदि अधिक मूल्य पर विमान खरीदने का मकसद खुद को या अन्य किसी को अनुचित लाभ पहुंचाना होता तो फिर सौदा 126 विमानों का होता। कांग्रेस यह भी याद रखे तो बेहतर कि राफेल सौदा दो सरकारों के बीच हुआ था और ऐसे सौदे में किसी तरह की गड़बड़ी की गुंजाइश खत्म हो जाती है।