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कर्नाटक के मुख्यमंत्री पद से बीएस येदियुरप्पा की विदाई दीवार पर लिखी वह पुरानी इबारत थी, जो अब पढ़ी गई है। पिछले काफी समय से पार्टी की स्थानीय इकाई में उनके प्रति असंतोष के स्वर मुखर थे, और इसका संदेश जनता में अच्छा नहीं जा रहा था। ऐसे में, पार्टी के केंद्रीय आलाकमान ने एक सीमा के बाद हस्तक्षेप किया, और उसकी परिणति यह इस्तीफा है। अभी चंद दिनों पहले येदियुरप्पा ने दिल्ली में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से मुलाकात की थी, और तभी से मुकर्रर दिन और तारीख को लेकर अटकलें तेज हो गई थीं। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी आज जिस मजबूत स्थिति में है, उसमें येदियुरप्पा की अहम भूमिका से कोई इनकार नहीं कर सकता। राज्य के मजबूत लिंगायत समुदाय पर प्रभावी पकड़ उनकी दावेदारी का सबसे वजनदार पहलू रही। पर चुनाव जीतना और शासकीय दक्षता, दोनों दो चीजें होती हैं, और येदियुरप्पा के शासनकाल को कर्नाटक में किसी दूरगामी शासकीय फैसले के लिए नहीं याद किया जाएगा।
उनके पुराने कार्यकाल में भ्रष्टाचार के कुछ प्रकरणों और बेल्लारी ब्रदर्स को लेकर काफी विवाद खड़ा हुआ था और अतत: उन्हें पद छोडऩा पड़ा था। मौजूदा विधानसभा कार्यकाल में भी मई 2018 के चुनाव में सबसे बड़ा दल होते हुए भी उनके पास लोकप्रिय जनादेश नहीं था। बावजूद इसके उन्होंने सरकार बनाने का दावा पेश किया और फिर चंद दिनों के भीतर ही उन्हें मुख्यमंत्री पद छोडऩा पड़ा, क्योंकि विधानसभा में वह जरूरी संख्या नहीं जुटा सके थे। जाहिर है, पार्टी आलाकमान इस उपहास के बाद उनसे बहुत खुश नहीं था। हालांकि, जुलाई 2019 में जोड़-तोड़ से सरकार बनाकर उन्होंने पार्टी के आहत मन पर मरहम लगाने का प्रयास किया, पर दोनों के बीच एक दूरी हमेशा महसूस हुई। राज्य मंत्रिमंडल के विस्तार से लेकर कई अन्य मसलों पर केंद्रीय व राज्य नेतृत्व की दूरी साफ दिखी। इससे भी वहां पार्टी के भीतर खेमेबाजी बढऩे लगी थी।
कर्नाटक दक्षिण में भाजपा का गढ़ है, जिसकी मिसाल देकर वह अन्य दक्षिणी प्रदेशों में अपना आधार मजबूत करने का मनसूबा रखती है। लेकिन येदियुरप्पा का शासन उसे वह नजीर नहीं मुहैया करा पा रहा था। यही नहीं, कर्नाटक में अगले दो साल के भीतर ही चुनाव होने वाले हैं और वहां की राजनीतिक अस्थिरता ने लोगों को कमोबेश निराश ही किया है। तब तो और, जब राज्य कोरोना महामारी की गंभीर चुनौती से मुकाबिल है। बताने की जरूरत नहीं कि किसी भी प्रदेश में जल्दी-जल्दी नेतृत्व बदलने से विकास की प्रक्रिया बाधित होती है, क्योंकि हर नेता की अपनी शासन-दृष्टि, प्राथमिकताएं होती हैं। 
विडंबना यह है कि बड़ी पार्टियों के मजबूत जनाधार वाले क्षेत्रीय राजनेता अब सबको साथ लेकर चलने का हुनर खोते जा रहे हैं, और इसकी कीमत न सिर्फ वे खुद चुकाते हैं, बल्कि पूरे प्रदेश को चुकानी पड़ती है। कर्नाटक में पार्टी के विधायक अब जिसे भी नया मुख्यमंत्री चुनते हैं, उनकी सबसे बड़ी परीक्षा राजनीतिक मोर्चे पर पार्टी को एक रखने में तो होगी ही, प्रदेश के लोगों को एक कुशल प्रशासन देने में भी होगी, जिसकी राह कर्नाटक देख रहा है। उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन के बाद येदियुरप्पा को इस्तीफे के लिए मनाकर या फिर बाध्य करके आलाकमान ने अपने अन्य क्षत्रपों को भी संदेश दे दिया है कि सबको साधकर चलना होगा।