रमेश पठानिय
मैं यहां मिनिमम स्पोर्ट प्राइस की बात नहीं कर रहा, लेकिन हर मंडी में सरकार की तरफ से दो नुमाइंदे यह तो देख ही सकते हैं कि किस तरह का उत्पाद मंडी में आया है, क्या यह उत्पाद लोकल व्यापारी द्वारा आंके गए मूल्य से और बेहतर तो नहीं है। छोटे और मझोले किसानों-बागवानों को जो किसी बड़ी कम्पनी को सीधे सेब नहीं बेच पाते या ठेकेदारों को नहीं बेच पाते, उन्हें अच्छे दाम मिलें तो उन्हें इससे लाभ हो सकता हैज्
घरेलू और प्रदेश के बाहर की मंडियों में हिमाचली सेब, खासकर कुल्लू घाटी से जाने वाले सेब को अच्छे मूल्य क्यों नहीं मिल पाते, यह वर्षों से होता आया है, जब से दिल्ली की आज़ादपुर मंडी में हिमाचल से ले जाए जाने वाले सेब की बोली लगाई जाती थी, हाथ पर रुमाल रख कर। मैंने कई बार सुबह मंडी जाकर इस पूरे गणित को समझने की कोशिश की, लेकिन व्यर्थ। सैकड़ों ट्रकों में मुश्किलों का सामना करते हुए सेब दिल्ली या पंजाब की मंडियों में ले जाया जाता था। उसके दाम उचित मोल-भाव कर नहीं लगाए जाते थे। सब आढ़तियों की मनमानी और समझ से होता था। बागवान ज्यादा दिन तक सेब को मंडी या ट्रक में नहीं रख सकता था क्योंकि उसके खराब होने का भय बना रहता था। इसलिए जो भी दाम मिले, लेकर घर वापस। कुछ बागवान शुरू में ही इन आढ़तियों से अग्रिम राशि (एडवांस) ले लेते थे ताकि सेब को मंडी तक पहुंचाने में सारे खर्चे उठाए जा सकें, तो उनसे आढ़ती मनचाहे भाव से सेब खरीद लेते थे।
हिमाचल में क्षेत्रीय स्तर पर सरकार ने मंडियां स्थापित की हैं, जैसे कुल्लू में बंदरोल, पतली कूहल, आलू ग्राउंड, पनारसा, जहां पर छोटे और मझोले बागवान अपने सेब और दूसरे फल लेकर आते हैं। लेकिन लोकल व्यापारी खुली बोली लगा कर उसे बागवानों से खरीदते हैं। यह बोली कितने से शुरू होगी, यह लोकल व्यापारी ही तय करता है। भाव को गिराना-उठाना उसके हाथ में है। जो सेब दिल्ली या दूसरे बाजार में 150 या 170 या 200 रुपए प्रति किलो मिलता है, वह मात्र 20 या 25 रुपए प्रति किलो के हिसाब से खरीदा जाता है। सेब ऊंचाई वाले क्षत्रों में होता है। सबसे अधिक और स्वादिष्ट सेब 2700 मीटर, फिर मध्यम ऊंचाई 2000 मीटर और सबसे कम ऊंचाई 1350 मीटर की ऊंचाई पर छोटी किस्म के सेब होते हैं जो जल्दी तैयार होते हैं।
सबसे ज्यादा ऊंचाई पर लगने वाले सेब सबसे आखिर में मंडी में आता है। रॉयल डिलीशियस किस्म का यह सेब बहुत ही स्वादिष्ट और खुशगवार लाल रंग का होता है। किन्नौर में काल्पा और चांगों का सेब प्रदेश में सर्वोत्तम है। हिमाचल में प्रति हेक्टेयर सेब की पैदावार लगभग 11 टन है जबकि विकासशील देशों में जहां सेब होता है यह 35 टन प्रति हेक्टेयर है। हिमाचल में 100 साल से ज्यादा समय से सेब की पैदावार हो रही है। श्री सत्यानंद स्टोक्स ने पहली बार कोटगढ़ में सेब का पौधा लगाया था। फिर यह पूरे हिमाचल में ऊंचाई वाले क्षत्रों में जहां सेब हो सकता है, फैल गया। 1960-61 में कुल 3025 हेक्टेयर जमीन पर सेब के पौधे थे। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अब 109533 हेक्टेयर जमीन पर सेब के पौधे हैं। प्रदेश की अर्थव्यवस्था में 89 प्रतिशत फलों की बिक्री का योगदान है। बाकी पर्यटन पर निर्भर है। देश में सबसे ज्यादा सेब कश्मीर और हिमाचल से ही मंडियों में आता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बात करें तो चीन सेब उत्पादन में सबसे आगे है। उसके बाद अमरीका, तुर्की, भारत तथा रूस हैं। विश्व में चीन सबसे ज्यादा सेब निर्यात करता है। हिमाचल में कुल्लू के सेब की कोल्ड स्टोरेज वैल्यू बहुत कम है क्योंकि इसे ज्यादा देर तक नहीं रखा जा सकता, जबकि किन्नौर का सेब जो अक्तूबर में मंडी में आएगा, अधिक दिनों तक रखा जा सकता है।
किन्नौर का सेब अपने रंग, आकार और पौष्टिकता के लिए बहुत प्रसिद्ध है। मंडी में अच्छे भाव बिकता है। रॉयल डिलिशियस सेब की वह किस्म है जो अधिकतर बिकती है, लेकिन स्वाद और पौष्टिकता की नजऱ से गोल्डन सेब भी प्रचलित है, लेकिन मंडी में उसके अच्छे भाव नहीं मिलते, उसके हरे-पीले रंग के कारण। सरकार द्वारा स्थापित इन मंडियों में सरकार को कहीं न कहीं यह तय करना होगा कि सेब की बोली सेब के रंग, आकार और उसके दूसरे मापदंडों को ध्यान में रखते हुए एक ऐसे मूल्य से शुरू की जाए जिससे किसान-बागवान ठगा हुआ महसूस न करे। मैं यहां मिनिमम सपोर्ट प्राइस की बात नहीं कर रहा, लेकिन हर मंडी में सरकार की तरफ से दो नुमाईंदे यह तो देख ही सकते हैं कि किस तरह का उत्पाद मंडी में आया है, क्या यह उत्पाद लोकल व्यापारी द्वारा आंके गए मूल्य से और बेहतर तो नहीं है। छोटे और मझोले किसानों-बागवानों को जो किसी बड़ी कम्पनी को सीधे सेब नहीं बेच पाते या ठेकेदारों को नहीं बेच पाते, उन्हें अच्छे दाम मिलें तो उन्हें इससे लाभ हो सकता है। हिमाचल के बागवानों को सेब के अलावा दूसरी प्रजातियों के पौधों पर भी ध्यान देना होगा, जैसे किवी, अंगूर, बादाम, अनार, लीची, जिनसे उनकी आय में बढ़ोतरी की जा सके। प्रदेश के बड़े अनुष्ठान एचपीएमसी को आगे आकर बागवानों का सहयोग करना होगा, उनके उत्पाद को खरीदने में।
देश की बड़ी कंपनियां, जिनके फ्रेश फ्रूट्स के आउटलेट्स हैं, उन्हें अच्छे दामों पर बागवानों से फल खरीदने चाहिए, न कि उन्हें बहला-फुसलाकर सब्ज़बाग दिखा कर सस्ते दामों में। हिमाचल के बागवान को और जागरूक होने की जरूरत है। उन्हें बड़े कार्पोरेट्स के झांसे में नहीं आना है। साल भर की मेहनत, जो बागवान बागीचों में करते हैं, कई बार खऱाब मौसम और विपरीत परिस्थितियों में सेब की फसल तैयार करते हैं, उन्हें उसका उचित मूल्य तो मिलना ही चाहिए। कोरोना महामारी के चलते यह सेब की दूसरी फसल है जिसे अत्यधिक मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। बागवानों को अपनी जान जोखिम में डाल कर यह सब करना पड़ रहा है। सरकार को अच्छे दामों पर किसानों से सेब तथा अन्य फल खरीदने का प्रावधान करना चाहिए था। प्रदेश में सेब तथा अन्य फलों से जूस और दूसरे उत्पाद बनाने के लिए नए स्टार्टअप्स को बढ़ावा देना चाहिए, ताकि एचपीएमसी के सिवाए भी लोग इस क्षेत्र में आ सकें और जैम, जैली साइडर, वाइन का उत्पादन पूरी गुणवत्ता से कर सकें। फिर उनके निर्यात की व्यवस्था की जाए।
प्रदेश के फलों के उत्पाद का एक हिस्सा प्रदेश में ही काम आने लगेगा और प्रदेश के लोगों को रोजग़ार भी मिलेगा।
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