संपूर्ण सृष्टि में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अपनी बुद्धि और विवेक के आधार पर अच्छे व बुरे कर्मो का निर्धारण कर सकता है। मनुष्य को सदैव धर्म व अधर्म का ध्यान करते हुए वही कार्य करने चाहिए जो समाज के लिए हितकारी हों। हमें ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे समाज का अहित होता हो।
परहित अर्थात दूसरों का उपकार करना सबसे बड़ा पुण्य माना गया है। ऐसा पुण्य करने वाले व्यक्ति की कीर्ति युगों-युगों तक अक्षुण्ण रहती है। वास्तव में दूसरों की भलाई के समान अन्य कोई श्रेष्ठ धर्म नहीं है। इसी प्रकार दूसरों को कष्ट देने जैसा कोई और पाप नहीं।
यह विडंबना ही है कि आज के भौतिकतावादी संसार में ऐसे विचार अपने अर्थ खोते जा रहे हैं। आज स्वार्थ से मुक्त व्यक्ति का उपहास उड़ाया जाता है। इसी कारण अधिकांश लोग स्वार्थ सिद्धि में ही लगे हैं। इसका परिणाम यह हो रहा है कि हम अपने हित की पूर्ति के लिए दूसरे के हितों को नुकसान पहुंचाते हैं और दूसरा अपने हितों की पूर्ति के लिए हमारे हितों को। इससे समाज में वैमनस्य और कटुता न केवल जन्म ले रही है, बल्कि बड़ी रफ्तार से फल-फूल भी रही है। अपने स्वार्थ के वशीभूत न होकर यदि हम दूसरों के हितों के अनुरूप काम करें और दूसरा हमारे हितों के अनुरूप तो एक संतुलित एवं सौहार्दपूर्ण समाज की स्थापना संभव हो सकेगी। हम इतिहास को देखें तो उसमें ऐसे-ऐसे लोग हुए हैं, जिन्होंने समाज कल्याण व परहित के लिए अपना जीवन तक न्योछावर कर दिया। त्याग की प्रतिमूर्ति माने गए महर्षि दधीचि उनमें से एक हैं, जिन्होंने सृष्टि के कल्याण हेतु अपनी अस्थियां तक दान कर दीं। भगवान श्रीराम ने सृष्टि के कल्याण के लिए राजपाट त्याग दिया।
स्वामी विवेकानंद से लेकर महात्मा गांधी आदि अनेक महापुरुष हुए हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए न केवल अपना जीवन समर्पित किया, अपितु मानव व समाज कल्याण हेतु कष्ट भी सहे। इसीलिए वे इतिहास में अमर हैं।
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