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नई दिल्ली। महाराष्ट्र में सियासी घमासान जारी है। संकट सरकार पर तो है ही शिवसेना के अस्तित्व पर भी है। इस बगावत से इस बात के भी कयास लग रहे हैं कि क्या शिवसेना अब ठाकरे परिवार के साये से बाहर निकल जाएगी? जिस शिवसेना को उद्धव ठाकरे के पिता बाला साहेब ठाकरे ने बनाया, जिस शिव सेना में पहले बाला साहेब फिर उद्धव ठाकरे ही पार्टी प्रधान रहे, क्या अब कोई गैर ठाकरे इसका प्रमुख बनेगा? इन सभी सवालों के जवाब आने वाले कुछ दिनों में मिल जाएंगे।  

किसी पार्टी में इस तरह की बगावत पहली बार नहीं हो रही है। पहले भी कई पार्टियों पर कब्जे को लेकर बगावतें हो चुकी हैं। यहां तक कि एक राज्य में तो पार्टी बनाने वाले नेता को मुख्यमंत्री रहते हुए अपने ही लोगों के विद्रोह का सामना करना पड़ा। मुख्यमंत्री पद के साथ ही जो पार्टी उन्होंने बनाई वो भी उनके हाथ से चली गई। आइए जानते हैं बगावत के ऐसे ही पांच किस्से…

1. कांग्रेस: इंदिरा की सिंडीकेट से बगावत की कहानी
1967 के लोकसभा और विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के कई दिग्गज नेता हार गए थे। कांग्रेस साधारण बहुमत के साथ सत्ता में आई। सत्ता में आने के बाद इंदिरा अपने लोगों को संगठन में शामिल करना चाहती थीं, लेकिन पार्टी के पुराने दिग्गज उनकी कोशिशों को सफल नहीं होने दे रहे थे। इनमें पार्टी अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा, पूर्व अध्यक्ष के. कामराज, मोरारजी देसाई, अतुल्य घोष, सदोबा पाटिल, नीलम संजीव रेड्डी जैसे कांग्रेसी शामिल थे। 

1969 के राष्ट्रपति चुनाव के दौरान कांग्रेस की कलह खुलकर सामने आ गई। इंदिरा की बगावत की वजह से राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार को हार का मुंह देखना पड़ा। संघर्ष बढ़ा तो पार्टी अध्यक्ष एस. निजलिंगप्पा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को पार्टी से बर्खास्त कर दिया। महज दो साल में ही इंदिरा सरकार अल्पमत में आ गई। इंदिरा ने वाम दलों के समर्थन से अल्पमत सरकार चलाई। 

1971 के चुनाव में पुराने बुजुर्ग नेताओं की कांग्रेस (ओ) और इंदिरा की कांग्रेस (आर) चुनाव में आमने-सामने थी। कांग्रेस (ओ) में ज्यादातर वही लोग थे जो प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के किसी जमाने में करीबी हुआ करते थे और इंदिरा जिनके लिए बेटी जैसी थीं। इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली पार्टी का चुनाव चिह्न 'गाय का दूध पीता बछड़ा' था। यह पहली बार था जब कांग्रेस गाय-बछड़े के चुनाव चिह्न पर लोकसभा चुनाव लड़ रही थी। इंदिरा की कांग्रेस को न सिर्फ जीत मिली, बल्कि पार्टी पर पूरी तरह से उनका कब्जा हो गया। 

2. एआईएडीएमके: जब विधानसभा  में हुआ था लाठीचार्ज
बात 1987 की है। उस वक्त तमिलनाडु में ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम सत्ता में थी। एमजी रामचंद्रन मुख्यमंत्री थे। 24 दिसंबर 1987 को रामचंद्रन का निधन हो गया। उनके निधन के साथ एआईएडीएमके के दो गुटों में पार्टी पर नियंत्रण के लिए संघर्ष शुरू हो गया। एक गुट की अगुआई एमजी रामचंद्रन की पत्नी जानकी रामचंद्रन कर रही थीं। वहीं, दूसरे गुट की अगुआई पार्टी की सचिव जयललिता कर रही थीं।  

पार्टी के धड़े ने जानकी को पार्टी महासचिव चुन लिया तो जयललिता धड़े ने कार्यकारी मुख्यमंत्री नेदुनचेहिन को पार्टी का महासचिव चुन लिया। दोनों गुटों की ओर से एक-दूसरे पर पुलिस केस तक हुए। दोनों धड़ों ने राज्यपाल के सामने अपने-अपने दावे पेश किए। राज्यपाल ने जानकी रामचंद्रन को सरकार बनाने का न्योता दिया। जयललिता ने आरोप लगाया कि पूरे प्रदेश में उनके समर्थकों ने गिरफ्तार कर लिया गया है। 

जलललिता समर्थक 30 विधायक इंदौर के होटल में शिफ्ट कर दिए गए। यहां से इन विधायकों को मुंबई में एक शिवसेना नेता के होटल में शिफ्ट किया गया। ये ड्रामा इतना चला कि जयललिता ने अपनी हत्या की साजिश रचने का आरोप तक लगाया। शिकायत लेकर वो राष्ट्रपति आर वेंकटरमण और प्रधानमंत्री राजीव गांधी तक भी गईं। 

28 जनवरी 1988 को जब जानकी सरकार को सदन में बहुमत साबित करना था। उस दिन विधानसभा में जमकर हिंसा हुई। पुलिस ने सदन के अंदर लाठीचार्ज तक किया। नतीजा ये रहा कि राज्य में राष्ट्रपति शासन लग गया। तीन हफ्ते पुरानी जानकी सरकार को बर्खास्त कर दिया गया।  

नए सिरे से चुनाव हुए तो जयललिता गुट को 27 सीटें मिलीं। राज्य में डीएमके की सरकार बनी और जयललिता नेता प्रतिपक्ष बनीं।  फरवरी 1989 में दोनों धड़ों का विलय हो गया और जयललिता पार्टी की नेता बनीं। पार्टी का चुनाव निशान भी उनके पास आया। इसके बाद हुए लोकसभा चुनाव में पार्टी को राज्य की 40 में से 39 सीटों पर जीत मिली थी।  जयललिता के निधन के बाद भी इसी तरह का संघर्ष पार्टी में देखा गया।

3. तेदेपा: अपने ही परिवार की बगावत में हारा सुपरस्टार
1982 में तेलुगू सुपरस्टार एनटी रामाराव ने तेलुगू देशम पार्टी (TDP) गठन किया। पार्टी में कलह और गुटबाजी की शुरुआत 1993 में हुई। जब एनटीआर ने लक्ष्मी पार्वती से शादी की। कहा जाता है कि एनटीआर पर्वती को TDP का नेतृत्व संभालने के लिए तैयार कर रहे थे। 

एनटीआर के इस फैसले का पार्टी में विरोध शुरू हो गया। 1994 में हुए चुनाव के बाद टीडीपी ने लेफ्ट के साथ गठबंधन सरकार बनाई। उस वक्त तक गुटबाजी बहुत बढ़ चुकी थी। 1995 में एनटीआर को अपने दामाद और पार्टी के कद्दावर नेता एन चंद्रबाबू नायडू का विद्रोह झेलना पड़ा। टीडीपी के ज्यादातर सदस्य नायडू के साथ थे। इनमें एनटीआर के बेटे भी शामिल थे। सितंबर आते-आते एनटीआर के हाथ से सत्ता और पार्टी दोनों निकल गईं। एक सितंबर 1995 को चंद्रबाबू नायडू पार्टी के नेता बने। उन्होंने राज्य के मुख्यमंत्री के दौर पर शपथ ली। 

वहीं, एनटीआर के धड़े को टीडीपी (एनटीआर) के नाम से जाना गया। 1996 में एनटीआर का निधन हो गया। एनटीआर की पत्नी पार्वती टीडीपी (एनटीआर) की नेता बनीं। धीरे-धीरे इस पार्टी का अस्तिव समाप्त हो गया और पार्वती कांग्रेस में शामिल हो गईं। इस वक्त पार्वती वाईएसआर कांग्रेस की नेता हैं। दूसरी ओर टीडीपी को 1999 के विधानसभा चुनाव में फिर से जीत मिली। चंद्रबाबू नायडू लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने।  

4. समाजवादी पार्टी: अखिलेश की बगावत और पार्टी पर कब्जे की कहानी
बात 2016 की है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को चंद महीने बचे थे। राज्य में समाजवादी पार्टी की सरकार थी। पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव के बेटे अखिलेश यादव राज्य के मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार में मंत्री और चाचा शिवपाल यादव ने अखिलेश के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। 

विवाद बढ़ा गायत्री प्रजापति को मंत्री पद से हटाए जाने के बाद। प्रजापति को हटाने का अखिलेश का फैसला मुलायम और शिवपाल को नागवार गुजरा। मुलायम में प्रजापति को फिर से मंत्री बनाने के लिए कहा, लेकिन अखिलेश ने ऐसा करने से मना कर दिया। अखिलेश के फैसले के बाद मुलायम ने उन्हें प्रदेश अध्यक्ष पद से हटाकर शिवपाल को अध्यक्ष नियुक्त कर दिया। 

इससे सत्ता और संगठन के बीच विवाद और बढ़ गया और अखिलेश ने शिवपाल को अपने मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया। जवाब में अखिलेश के कई करीबियों को पार्टी से बाहर कर दिया गया। यहां तक कि पार्टी प्रवक्ता राजेंद्र चौधरी भी पार्टी से बाहर कर दिए गए। इस कार्रवाई से भड़के अखिलेश ने इस पूरी कलह के पीछे अमर सिंह का हाथ बताया। 

विवाद इतना बढ़ा कि मुलायम सिंह यादव ने रामगोपाल यादव और अपने बेटे अखिलेश यादव को पार्टी से बाहर कर दिया। इसके बाद रामगोपाल यादव और अखिलेश यादव ने पार्टी का अधिवेशन बुलाया, जिसमें पार्टी के अधिकतर दिग्गज आए। विद्रोही गुट के इस अधिवेशन में मुलायम सिंह यादव की जगह अखिलेश यादव राष्ट्रीय अध्यक्ष चुन लिए गए। शिवपाल की जगह नरेश उत्तम को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया गया। मामला चुनाव आयोग तक पहुंचा। अखिलेश के पक्ष में पार्टी के ज्यादातर जनप्रतिनिधि थे। शिवपाल खेमे में सिर्फ दर्जन भर नेता ही रह गए। चुनाव आयोग ने समाजवादी पार्टी पर हक का फैसला अखिलेश के पक्ष में किया। इसके बाद शिवपाल ने अपनी अलग पार्टी प्रगतिशील समाजवादी पार्टी बनाई। 
 
5. लोजपा: जब चाचा की बगावत ने भतीजे के हाथ से पार्टी छीनी
रामविलास केंद्र की राजनीति में सक्रिय थे। वहीं, पशुपति पारस प्रदेश अध्यक्ष थे। रामविलास बीमार पड़े तो चिराग ने पार्टी की कमान अपने हाथ में ले ली। चिराग ने चाचा पशुपति पारस के हाथ से बिहार की बागडोर छीन ली। इसी के बाद दोनों के बीच की खाई बढ़ने लगी। अक्टूबर राम विलास के निधन के बाद वर्चस्व की जंग तेज हो गई। बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में चिराग ने अकेले जाने का फैसला किया। पशुपति पारस ने इसका विरोध किया।

चुनाव के नतीजे में चिराग बुरी तरह से असफल रहे। इसके बाद ये बगावत और बढ़ गई। जून 2021 आते-आते पशुपति पारस ने पार्टी के छह में पांच सांसदों को अपने साथ मिलाकर चिराग से संसदीय दल के पद और पार्टी की कमान दोनों ही छीन ली। पशुपति पारस अब केंद्र में मंत्री हैं। लोजपा का नाम पशुपति पारस गुट को मिला। वहीं, चिराग अब लोजपा (रामविलास) के नेता हैं।