नई दिल्ली। केन्द्र सरकार ने समलैंगिक जोड़ों की शादी को मान्यता देने की मांग वाली याचिकाओं पर सुनवाई कर रही उच्चतम न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ से बुधवार को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से इस मामले में विचार-विमर्श करके उनकी राय उसके समक्ष रखने की अनुमति देने की गुहार लगाई।
मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, और न्यायमूर्ति संजय किशन कौल, न्यायमूर्ति एस. रवींद्र भट, न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और न्यायमूर्ति हिमा कोहली की संविधान पीठ के केंद्र सरकार ने एक और हलफनामा दायर किया है। इस हलफनामे में कहा गया है कि राज्यों को पक्षकार बनाए और उनकी राय लिए बिना वर्तमान मुद्दों पर कोई भी निर्णय मौजूदा विरोधात्मक कवायद को अधूरा और छोटा कर देगा।
इस तथ्य पर विचार करते हुए परामर्श प्रक्रिया आयोजित करने तथा केंद्र शासित प्रदेशों और राज्यों की राय रिकॉर्ड पर रखने के वास्ते समय देने की मांगा संविधान पीठ से की गई।
नए हलफनामे में कहा गया है कि केंद्र सरकार ने सभी राज्यों को दिनांक 18 फरवरी 2023 को एक पत्र जारी किया है, जिसमें याचिकाओं में उठाए गए मौलिक मुद्दों पर टिप्पणियां और विचार आमंत्रित किए गए हैं। केंद्र सरकार के हलफनामे में यह भी कहा गया है कि वर्तमान मामला और शीर्ष अदालत द्वारा परिभाषित मुद्दा, यहां तक कि जब विशेष विवाह अधिनियम-1954 तक सीमित था, तो मौजूदा कानून के तहत विचार किए जाने की तुलना में एक अलग तरह के "विवाह" नामक एक सामाजिक संस्था के तथाकथित न्यायिक निर्माण की आवश्यकता थी।
हलफनामे में यह भी कहा गया है कि सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को वर्तमान अदालती कार्यवाही में एक पक्ष बनाया जाना चाहिए। पीठ ने 18 अप्रैल से सुनवाई शुरू की थी। पहले दिन केंद्र सरकार ने इस मामले की सुनवाई की योग्यता सवाल उठाते हुए इस पर विचार करने का अनुरोध अदालत से किया था।
केंद्र सरकार ने संविधान पीठ की सुनवाई शुरू करने से ठीक पहले शीर्ष अदालत के समक्ष एक नया आवेदन दाखिल किया था। इसके जरिए तर्क देते हुए कहा गया था,"समान लिंग विवाह के अधिकार को मान्यता देने में न्यायालय द्वारा एक निर्णय का अर्थ कानून की एक पूरी शाखा का एक आभासी न्यायिक पुनर्लेखन करने जैसा होगा। न्यायालय को इस तरह के सर्वव्यापी आदेश पारित करने से बचना चाहिए, क्योंकि उसके (कानून के लिए) लिए उचित विधायिका है।"
सरकार का कहना है कि केवल उपयुक्त विधायिका ही एक संस्था के रूप में विवाह की समझ के भारतीय संदर्भ में सामाजिक लोकाचार, सामाजिक मूल्यों और व्यापक सामाजिक स्वीकार्यता के आधार पर मुद्दों पर निर्णय ले सकती है। सरकार का यह भी कहना है कि केवल शहरी अभिजात्य विचारों को दर्शाने वाली
याचिकाओं की तुलना उपयुक्त विधायिका से नहीं की जा सकती है। विधायिका व्यापक परिदृश्य के विचारों और आवाजों को दर्शाती है तथा पूरे देश में फैली हुई है।
मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति पी. एस. नरसिम्हा और जे. बी. पारदीवाला की पीठ ने 13 फरवरी को मामले में संबंधित पक्षों की दलीलें सुनने के बाद इस मामले को पांच सदस्यीय संविधान पीठ के समक्ष विचार के लिए भेजने का फैसला सुनाया था। केंद्र सरकार ने 12 मार्च को अपना पक्ष लिखित रूप से शीर्ष अदालत के समक्ष रखा था, जिसमें समलैंगिक जोड़े की शादी को कानूनी मान्यता देने की मांग का विरोध किया गया है। सरकार का कहना है कि यह सामाजिक नैतिकता और भारतीय लोकाचार के अनुरूप नहीं है।
केंद्र सरकार ने अपने जवाब में यह भी कहा है कि विवाह/मिलन/संबंध तक सीमित विवाह की प्रकृति में विषमलैंगिक होने की वैधानिक मान्यता पूरे इतिहास में आदर्श है और राज्य के अस्तित्व और निरंतरता दोनों के लिए मूलभूत आधार है। सरकार का मानना है कि समलैंगिक जोड़े की शादी को मान्यता देना न केवल संहिताबद्ध कानूनों का उल्लंघन होगा, बल्कि देश में व्यक्तिगत कानूनों और स्वीकृत सामाजिक मूल्यों के नाजुक संतुलन को भी पूरी तरह से नुकसान पहुंचेगा।
सरकार का कहना है कि समान लैंगिक संबंधों को भारतीय दंड संहिता की धारा 377 के तहत अपराध की परिधि से अलग रखने के बावजूद देश के कानूनों के तहत समलैंगिक जोड़े विवाह के लिए मौलिक अधिकार का दावा नहीं कर सकते हैं।
सरकार ने अपने जवाब में यह भी कहा, "शादी करने वाले पक्ष एक ऐसी संस्था का निर्माण करते हैं जिसका अपना सार्वजनिक महत्व होता है। विवाह के अनुष्ठान/पंजीकरण के लिए घोषणा की मांग करना साधारण कानूनी मान्यता की तुलना में अधिक प्रभावी है। समान लिंग के व्यक्तियों के बीच विवाह की मान्यता और पंजीकरण पारिवारिक मुद्दे मात्र से परे हैं।
शीर्ष अदालत ने संविधान पीठ के समक्ष मामले को अंतिम सुनवाई के लिए भेजते हुए कहा था कि सम्मान के साथ जीने के अधिकार सहित विभिन्न अधिकारों के परस्पर प्रभाव के मद्देनजर यह मुद्दा मौलिक महत्व का है।
शीर्ष अदालत के समक्ष केंद्र सरकार का पक्ष रख रहे सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क देते हुए कहा था कि प्रेम, अभिव्यक्ति और पसंद की स्वतंत्रता के अधिकार को पहले ही उच्चतम न्यायालय द्वारा मान्यता दी जा चुकी है। कोई भी उन अधिकारों में हस्तक्षेप नहीं कर रहा है, लेकिन जहां तक विवाह का अधिकार प्रदान करने का सवाल है यह तो विधायिका के 'विशेष क्षेत्र' में आता है।
श्री मेहता ने हालांकि, कहा था कि यदि एक मान्यता प्राप्त संस्था के रूप में विवाह समान लिंग के आडे़ आता है तो गोद लेने पर सवाल आएगा और इसलिए संसद को बच्चे के मनोविज्ञान के मुद्दे को देखना होगा। उन्होंने दलील देते हुए कहा था कि इसकी जांच की जानी चाहिए कि क्या इसे (समलैंगिक जोड़े की शादी का मामला) इस तरह से उठाया जा सकता है।
याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता के वी. विश्वनाथन ने भी कहा था कि यहां अनुच्छेद 21 के तहत जीवन का अधिकार और संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत अभिव्यक्ति का अधिकार है। उन्होंने कहा था कि शादी के अधिकार से इनकार अभिव्यक्ति और गरिमा के अधिकार से इनकार करना है। ये वास्तव में व्यक्तियों के प्राकृतिक अधिकार हैं।
याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता नीरज किशन कौल ने शीर्ष अदालत के समक्ष कहा था कि विशेष विवाह अधिनियम दो व्यक्तियों के बीच विवाह को मान्यता देता है। उन्होंने नवतेज जौहर (आईपीसी की धारा 377 को गैर-अपराधीकरण करने का मामला) मामले में भी कहा था कि शीर्ष अदालत ने कहा था कि जीवन के अधिकार में विवाह, संतानोत्पत्ति और यहां तक कि यौन रुझान का अधिकार भी शामिल है।
वरिष्ठ अधिवक्ता ए. एम. सिंघवी ने कहा था कि विवाह के अधिकार को केवल उनके यौन रुझान के आधार पर व्यक्तियों के एक वर्ग से नहीं रोका जा सकता है।
उन्होंने यह भी कहा था कि इसके लिए प्रावधान करने के लिए व्यक्तिगत कानूनों को सामंजस्यपूर्ण ढंग से पढ़ा जा सकता है। इस पर श्री मेहता ने दलील दी थी कि शीर्ष अदालत ने नवतेज जौहर के मामले में समलैंगिक जोड़े की शादी के मुद्दे पर पहले ही स्पष्ट कर दिया था।
उन्होंने कहा कि कलंक आदि के प्रश्न का पहले ही ध्यान रखा जा चुका है।